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भारतीय संवतों का इतिहास
आजकल पंचांग निर्माण के लिये कलि, विक्रम व शक सम्वतों की मिश्रित पद्धति का प्रयोग किया जाता है। अतः इन तीनों की गणना पद्धति के तत्वों को पृथक-पृथक रूप में इंगित कर पाना कठिन है। और इसका भी निश्चित पता नहीं लगता कि इन तीनों सम्वतों की पद्धति का यह मिश्रण अब से कितने वर्ष पहले हो गया था। आजकल हिन्दू पंचांगों में प्रयुक्त हो रही गणना पद्धति के अनुसार वर्ष की लम्बाई चन्द्रमान के अनुसार है। वर्ष को १२ महीनों में बांटा जाता है। एक माह को दो पखवाड़ों में तथा दोनों पक्षों को १३ से १५ तक तिथियों में बांटा जाता है। प्रति तीसरा वर्ष लौद का वर्ष होता है जिस में वर्ष की लम्बाई १३ माह होती है। महीनों का आरंभ पूर्णिमांत व अमांत दो तरीकों से किया जाता है। तथा देश के अलग-अलग स्थानों पर वर्ष का आरंभ अलग-अलग महीनों से किया जाता है। यही पद्धति सम्पूर्ण हिन्दू पंचांग में प्रयोग की जाती है। इसमें मात्र शक, विक्रम, व कलि सम्वतों के वर्तमान चालू वर्षों को लिख दिया जाता है । इसके अतिरिक्त इन तीनों सम्बतों का कोई अन्तर नहीं दीख पड़ता।
अभिलेखों में नये व पुराने दोनों ही शक सम्वतों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। पुरालेख शास्त्र मानता है कि पश्चिम में सुराष्ट्रा के क्षत्रप, बादानी के चालुक्य, ताककन्द के गांगेय, कांची के पल्लव, वनवासी के कदम्ब, मान्यकेता के राष्ट्र कूट तथा अन्य सभी बाद के छोटे-बड़े राजवंशों ने इस सम्वत् का प्रयोग अपने बहुत से शिलालेखों तथा दान सम्बन्धी ताम्रपत्रों में किया। शनैः-शनै: शक शब्द का प्रयोग युग के समानार्थ प्रयुक्त होने लगा। विभिन्न सम्वतों के साथ शक का प्रयोग हुआ। विक्रम शक हिज्री शक क्रिश्चयन शक आदि ।
कुछ सिद्धान्तों के अनुसार कुषाण कालीन अभिलेख इस सम्वत् में अंकित हैं जिसमें सैकड़ों की संख्या छोड़ दी गयी है। आर०जी० भण्डारकर के अनुसार अभिलेख शक सम्वत् में दिये गये हैं, २०० हटा दिया गया है। वाऊचर का कथन है कि कनिष्क द्वारा प्रयोग किया गया सम्वत् वह था जोकि ३२२ ई० पूर्व में आरम्भ हुआ तथा जिसमें से सैंकड़े छोड़ने हैं। ल्यू-ई-ज डी-ल्यू का मत है कि कुषाण अभिलेख में शक सम्वत् का प्रयोग है लेकिन कुछ ब्रह्मी अभिलेखों में जैसे कि वर्ष १४, २० या २२ में एक सैंकड़े का अंक छोड़ दिया गया है । इन विचारकों के मतों का खण्डन करते हुये बलदेव कुमार ने यह कहा है कियदि हम ऊपर दिये गये सिद्धान्तों का आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि विभिन्न विद्वानों ने केवल गणतीय तरीके को ही खोजने का प्रयास किया है जिसमें कि कुछ सैंकड़े छोड़ दिये गये हैं। इससे वह कुषाण तिथिक्रम की पहले से ही निर्धारित तिथियों पर पहुंच जाता है। उनमें से किसी ने भी यह सिद्ध