________________
११४
भारतीय संवतों का इतिहास
गुप्त संवत् सदियों पहले प्रचलन से बाहर हो चुका है। अत अब इसके वर्तमान प्रचलित वर्ष को ठीक-ठीक बता पाना सम्भव नहीं। पी० सी० सेन गुप्त के कथन के आधार पर अनुमानित वर्तमान प्रचलित वर्ष ही निकाला जा सकता है । पी० सी० सेन गुप्त' ने ई० वर्ष १९४० तक गुप्त संवत् के १६२१ व्यतीत वर्ष मानें । अर्थात् ई० १६४०-३१६ गुप्त संवत् १६२१ गुप्त संवत् के व्यतीत वर्ष । इस उद्धरण से स्पष्ट है कि सेन गुप्त ने गुप्त संवत् के वर्ष की लम्बाई उतनी ही मानी है जो ईसाई संवत् के वर्ष की है । इस प्रद्धति के आधार पर अब तक गुप्त संवत् के १९८८-३१६-१६६६ वर्ष व्यतीत होकर, ई० संवत् का १६८६ का यह वर्ष गुप्त संवत् का १६७०वां चालू वर्ष है। यह सम्भावित गणना ही है।
गुप्त संवत् के आरम्भिक समय व आरम्भकर्ता के सम्बन्ध में गहन विवाद है। इससे सम्बन्धित अनेक विपरीत धारणाएं प्रचलित हैं । इस संदर्भ में कुछ प्रमुख विचारकों के मत इस प्रकार हैं : अल्बेरुनी ने गुप्त वंश के विनाश के समय से गुप्त संवत् का आरंभ माना है। उनके विचार से गुप्त दुष्ट व अत्याचारी थे तथा उनके विनाश की खुशी में यह नया संवत् चलाया गया। अल्बेरुनी लिखते हैं : "गुप्त काल के विषय में लोग कहते हैं कि गुप्त दुष्ट और बलवान लोग थे। जब उनका अस्तित्व नष्ट हो गया तब यह तिथि एक संवत् के आरम्भ के रूप में प्रयुक्त हो गयी। जान पड़ता है कि बलभ (ऐसा ही) उनमें से अन्तिम था, क्योंकि, वलभ संवत् के सदृश, गुप्तों के संवत् का आरम्भ शक काल के २४१ वर्ष पश्चात् होता है।" अल्बेरुनी के कथन का मुख्य तथ्य यह है कि गुप्त संवत् की स्थापना दुष्ट गुप्तों की समाप्ति के समय से हुई । यह भारतीय संवत् आरम्भ परम्परा के विपरीत है। भारत में नये संवतों का आरम्भ जन्म, सिंहासनारोहण अथवा विजय प्राप्ति के संदर्भ में किया जाता था जबकि अल्बेरुनी का कहना है कि गुप्त संवत् का आरम्भ गुप्तों के अन्तिम शासक बलभ की मृत्यु के बाद किया गया। यह भी उचित नहीं लगता कि जिन दुष्ट गुप्तों से छुटकारा पाने के उपरान्त नया संवत् चलाया गया उस संवत् का नाम अत्याचारी गुप्तों के नाम पर ही गुप्त संवत् क्यों रख दिया गया। इस प्रकार आरम्भ होने वाले संवत् का नाम विजेता के नाम पर रखा जाना चाहिये था न कि परास्त होने वाले के नाम पर । अल्बेरुनी की
१. पी० सी० सेन गुप्त, "एंशियेंट इण्डियन क्रोनोलोजी", बम्बई, १९६३,
पृ० २७ । २. अल्बेरुनी, "अल्बेरुनी का भारत", अनु० रजनीकांत शर्मा, इलाहाबाद,
१६६७, पृ० २६७ ।