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भारतीय संवतों का इतिहास पद्धति में काफी उन्नत था तथा राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार में भी आया, फिर इस नये सम्वत् का आरम्भ करने की कनिष्क को क्या आवश्यकता थी । एक शासक एक से अधिक संवतों को आरम्भ करें यह व्यावहारिक नहीं लगता और यदि कनिष्क ने किसी कारणवश ऐसा किया भी हो तब उसके नाम के साथ अपना नाम क्यों नहीं लिखा, यह बात भी समझ नहीं आती। अतः उचित यही है कि कल्चुरी वंश के किसी शासक द्वारा २४८-४६ में कल्चुरी सम्वत् की स्थापना की गयी।
कल्चुरी सम्वत् की गणना पद्धति पूर्व प्रचलित पद्धति के समान ही थी। "यह सम्वत् चन्द्रसौर पद्धति पर आधारित था, वर्ष का आरम्भ आश्विन शुदी प्रथम से होता था। इसके माह पूर्णिमांत थे ।
प्रो० कीलहोनं, ओझा व कनिंघम के लेखन से पता चलता है कि इस सम्वत् का प्रयोग अभिलेखों के अंकन के लिये हमा, अभिलेखों में इस सम्वत् के प्रयोग के आधार पर ही इन विभिन्न विद्वानों ने कल्चुरी सम्वत् के विषय में अनेक अभिधारणाओं का प्रतिपादन किया। इसके अतिरिक्त यह भी सम्भव है कि तत्कालीन पंचांगों में भी इसका प्रयोग हुआ हो। इतिहास लेखन के लिये यह सम्वत् कितना उपयोगी रहा, यह स्पष्ट नहीं। फिर भी इतना तो माना ही जा सकता है कि जिस वंश के द्वारा इस सम्वत् का आरम्भ किया गया उस वंश विशेष के इतिहास में यह महत्वपूर्ण रहा होगा और विभिन्न घटनाओं व अभिलेखों का अंकन इसमें किया गया, तभी बाद में इसके अस्तित्व को खोज पाना सम्भव हुआ।
अपने आरम्भ से लगभग सात शताब्दियों तक यह सम्वत् प्रचलन में रहा । "इस सम्वत् वाला सबसे पहला लेख कल्चुरी सम्वत् २४५ (ईस्वी सन् ४६४) का और अन्तिम ६५८ का मिला है, जिसके पीछे यह सम्वत् अस्त हो गया। इसके वर्ष बहधा वर्तमान लिखे मिलते हैं।"२ ७ शताब्दियों तक सम्वत् का प्रयोग इस बात का प्रमाण है कि व्यावहारिक रूप से यह सम्वत् उपयोगी था तथा एक बड़े भू-भाग पर जनमानस ने इसका प्रयोग किया। किन्तु इसके पश्चात् इसकी समाप्ति के क्या कारण रहे। इस सम्बन्ध में यह समझा जा सकता है कि सम्भवतः गणना पद्धति में कुछ त्रुटि आ गयी हो व उसको शोधित न किया गया
१. "रिपोर्ट ऑफ द कलैण्डर रिफोर्म कमेटी", दिल्ली, १६५५, पृ० २५८ । २ राय बहादुर पण्डित गौरी शंकर हीरा चन्द ओझा, "भारतीय प्राचीन
लिपिमाला, अजमेर", १९१८, पृ. १७४ ।