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भारतीय संवतों का इतिहास
१६२१ हैं ।"" इसके आगे सेन गुप्त ने सूर्य की देशान्तर रेखांश पूर्वगमिता, संक्रान्ति तथा ग्रहणों आदि तथ्यों का विश्लेषण कर गुप्त संवत् के संदर्भ में कुछ निष्कर्ष इस प्रकार दिये हैं: २ (१) हमने १२ या ११ ठोस कथनों (जोकि अभिलेखों में मिलते हैं तथा जिनमें गुप्त या वलभी संवत् का प्रयोग किया गया है) के आधार पर पाया है कि गुप्त या वलभी संवत् एक ही संवत् के दो नाम हैं । (२) यह भी सम्भव है कि चर्चित संवत् का आरम्भ गुप्त राजाओं ने किया तथा गुप्तों के जागीरदार वलभी राजकुमारों ने इसे नया नाम दिया । (३) गुप्त संवत् २० दिसम्बर ३१८ ए० डी० से आरम्भ हुआ उसी वर्ष शीत संक्रान्ति से संवत् ० वर्ष आरम्भ हुआ । (४) गुप्त संवत् क्रिश्चयन संवत् से ३१९ ई० से लेकर ४ε६ ई० तक मिलता है जो आर्य भट्ट प्रथम की तिथि है । इस तिथि तक वर्ष की गणना पौष के शुक्त पक्ष से प्रारम्भ होती है । (५) किसी वर्ष से जो ४६६ ई० के बाद विभिन्न इलाकों में भिन्न था वर्ष का आरम्भ पौष के शुक्ल पक्ष से आगे बढ़ा दी गयी थी या शीत संक्रान्ति के दिन को चैत्र के शुक्ल पक्ष तक बढ़ा दिया गया था । यह आर्यभट्ट प्रथम के नियमानुसार जिसके अनुसार वर्ष का आरम्भ वरनल इक्यूनोक्स दिन से होना चाहिये, के अनुसार था । निष्कर्षं के लिये गुप्त संवत् का ० वर्ष ३१९ ई० के समान ही था । ४६६ ई० के पश्चात् इस संवत् को कुछ स्थितियों में ३१९-२० ई० के समकक्ष मान लिया गया । गुप्त व वलभी संवत् एक ही हैं। ऐसी आशा की जाती है कि इस संवत् से सम्बन्धित आगे की भविष्यवाणियां या परिकल्पनाएं स्वीकार्य नहीं होंगी ।
गुप्त संवत् की गणना पद्धति शक व विक्रम की मिश्रित पद्धति है । “गुप्त संवत् का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल १ से होता है और महीने पूर्णिमांत हैं। इस संवत् के वर्ष बहुधागत लिखे मिलते हैं और जहां वर्तमान लिखा रहता है वहां एक वर्ष अधिक लिखा रहता है । " एक वर्ष में १२ माह होते थे तथा एक माह में दो पक्ष होते थे । गुप्त संवत् का प्रयोग गुप्त वंशी नरेशों द्वारा सिक्कों व अभिलेखों के अंकन के लिये प्रचुर मात्रा में किया गया । गुप्त नरेशों के इस संवत् में अंकित बड़ी मात्रा में अभिलेख उपलब्ध हुये हैं । जिनसे इस वंश के इतिहास को तथा
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१. पी० सी० सेन गुप्त, " एंशियेंट इण्डियन क्रोनोलॉजी”, कलकत्ता, १९४७, पृ० २४५ ।
२. वही, पृ० २६१-६२ ।
३. राय बहादुर पण्डित गौरी शंकर हीरा चन्द ओझा, "भारतीय प्राचीन लिपिमाला”, अजमेर, १६१८, पृ० १७५ ।