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ऐतिहासिक घटनाओं से आरंभ होने वाले सम्वत्
११३ हो अथवा अन्य दूसरे सम्वतों का प्रभाव बढ़ गया हो, जैसाकि भारतीय इतिहास का यह नया मोड़ था जिसमें हिन्दू शासन की समाप्ति तथा इस्लाम धर्म के अनुयायियों का शासन आरम्भ हुआ। राजनैतिक प्रमार के साथ इस्लाम धर्म व रीति-रिवाजों का प्रभाव भी भारत में बढ़ा और यह तो निश्चित ही है कि इस्लाम के अनुयायियों ने यहां प्रचलित सम्वतों को छोड़कर राजकार्यों में अपने हिज्रा सम्वत् का प्रयोग आरम्भ किया। अतः यह सम्बत् व्यवहार से निकल गया।
गुप्त सम्वत् ___ गुप्त राजवंश के नाम पर इस सम्वत् का नाम गुप्त सम्वत् है। अभिलेखों में इसके लिये गुप्तकाल व गुप्त वर्ष नामों का प्रयोग हुआ है । वल भी नरेशों द्वारा भी इस सम्बत का प्रयोग किया गया अतः यह वलभी सम्वत् भी कहलाया। किन्तु डा० फ्लीट जो इस सम्वत् को लिच्छिवीयों द्वारा आरम्भ किया गया मानते हैं, इसके गुप्त व वलभी नामों से सहमत नहीं हैं । “किसी भी प्राचीन अभिलेख में हमें कहीं भी इस बात का संकेत प्राप्त नहीं होता कि इस सम्वत् की स्थापना गुप्तों ने की थी, न ही इस बात की कोई पारिभाषिक अभिव्यक्ति मिलती है । उलझन से बचने के लिए इस सम्वत् को कुछ नाम देना आवश्यक है और इसीलिये सुविधा के लिए मैं पिछले ४० वर्षों की परम्परा के अनुसार इसे गुप्त सम्वत् कहकर पुकारूंगा और चूंकि परिवर्ती काल में काठियावाड़ में यह सम्वत् वलभी सम्बत् कहा जाने लगा अतः संदर्भ के अनुसार मैं इसे बिना भेद करते हुये कभी गुप्त संवत् कभी वलभी संवत् तथा कभी गुप्त वलभी संवत् कहूंगा।"
उत्तरी भारत के काफी बड़े क्षेत्र में गुप्त संवत् प्रचलित रहा । स्वयं गुप्त नरेशों ने इसका प्रयोग किया तथा उनके सामंत राजवंशों ने भी इस संवत् का प्रयोग किया। "यह संवत् उत्तरी भारत में सौराष्ट्र से बंगाल तक ३१६ से ५५० ई० तक प्रचलित रहा, परन्तु उनके साम्राज्य के पतन के पश्चात् उनके प्रयोग वलभी के मैत्रकों तथा गुजरात व राजपूताना में किया गया यद्यपि बंगाल में इसका प्रयोग ५१० ई० में बन्द हो गया। उत्तर प्रदेश व प्राचीन मध्य प्रदेश में यह हर्ष संवत् तक चलता रहा । इसके बाद विक्रम संवत् ही उत्तरी भारत का प्रमुख संवत् बन गया।"२ गुप्त संवत् का विस्तार क्षेत्र उत्तरी भारत था। दक्षिण भारत में यह संवत् प्रचलित नहीं हुआ।
१. जान फेदफुल फ्लीट, "भारतीय अभिलेख संग्रह", अनु० गिरजा शंकर प्रसाद
मिश्र, जयपुर, १९७४, पृ० २१ । २. "रिपोर्ट ऑफ द कलैण्डर रिफोर्म कमेटी", दिल्ली १९५५, पृ० २५६ ।