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ऐतिहासिक घटनाओं से आरंभ होने वाले सम्वत्
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रहा है । १६५५ में भारत सरकार द्वारा शक संवत् को राष्ट्रीय सम्बत् के रूप में ग्रहण कर लिये जाने के बाद इसका राजकीय कार्यों में प्रयोग पुनः बढ़ गया है। तथा आजकल इसका प्रयोग सम्पूर्ण भारत में राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, खगोलशास्त्रीय व पंचांग निर्माण के कार्यों के लिए किया जा रहा है। और यद्यपि कतिपय विद्वानों द्वारा शक सम्वत् पर विदेशी होने का आरोप लगाया जाता है परन्तु अब भारतवासियों द्वारा इसको इस प्रकार अंगीकार कर लिया गया है कि इसकी पद्धति के विषय में यह बता पाना कि इसमें से कौन तत्व भारत में पहले से विद्यमान थे और किन नये तत्वों व सुधारों को इसके आरम्भकर्ताओं ने दिया, सम्भव नहीं है ।
कल्चुरी चेदो सम्वत् भारत के प्राचीन इतिहास में कल्चुरी नरेशों का स्थान कई दृष्टि से वैशिष्ट्य पूर्ण है। लगमग ५५० वर्षों तक भारत के किसी न किसी प्रदेश पर उनका शासन रहा । अभिलेखों में कलत्सुरी अथवा कल्चुरी नामों से इस वंश का उल्लेख मिलता है । अतः इस वंश से संबन्धित सम्वत् का उल्लेख भी कल्चुरी सम्वत्, चेदी सम्वत् तथा वैकुटक सम्वत् आदि नामों से मिलता है। कल्चुरी सम्वत् के प्रचलन क्षेत्र के संबन्ध में श्री ओझा का कहना है कि-"यह सम्वत् दक्षिणी गुजरात कोंकण एवं मध्य प्रदेश के लेखादि में मिलता है। ये लेख गुजरात आदि के चालुक्य गुर्जर, सेन्द्रक, कल्चुरी और कुटक वंशियों के एवं चेदी देश पर राज्य करने वाले कल्चुरी (हैहय) वंशी राजाओं के हैं ।" अर्थात् इस सम्वत् का प्रचलन क्षेत्र भारत का मध्य तथा पश्चिमी भाग रहा ।
कल्चुरी सम्वत् के आरम्भ के संदर्भ में दी गयी तिथियां २४८ ई० (मजूमदार), २६ अगस्त २४६ ई०, २४६ ई०=० कल्चुरी सम्वत्, २५० ई० = १ कल्चुरी सम्वत् (कनिंघम), ५ सितम्बर सन् २४८ ई० (जायसवाल),५ सितम्बर २४८ ई० (प्रो० कीलहोर्न) हैं। इन तिथियों में कुछ माह का ही अंतर है या ४८ अथवा ४६ ई० वर्ष है जो किसी भी सम्वत् के विषय में व्यतीत तथा चालू वर्ष लिखने के कारण दीखने लगता है वैसा ही अन्तर यह भी है । अत: २४८ ई० का वर्ष कल्चुरी सम्वत् के आरम्भ के लिये दिया गया जो उचित ही है।
कल्चुरी सम्वत का वर्तमान चालू वर्ष अज्ञात है क्योंकि यह प्रचलन में नहीं
१. राय बहादुर पण्डित गौरी शंकर हीरा चन्द ओझा, "भारतीय प्राचीन लिपिमाला", अजमेर, १६१८, पृ० १७३ ।