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ऐतिहासिक घटनाओं से आरंभ होने वाले सम्वत्
उसे शक राजा कनिष्क ने शस्त्राब्दियों से शक सम्वत् सरकार ने देश भर के लिये समान सम्वत् का तीसरा चरण है ।
१२३ ईस्वी पूर्व से आरम्भ हुआ । सम्वत् की दूसरी अवस्था वह रही जबकि ७८ ईस्वी में नये रूप में ग्रहण किया। भारत में दो आज तक प्रचलित है । तथा १६५७ को भारतीय राष्ट्रीय पंचांग के लिये ग्रहण किया, यह
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पुराने शक सम्वत् के सम्बन्ध में विद्वानों का मत है कि वह कनिष्क से शताब्दियों पहले प्रचलन में था । कनिष्क ने किसी नये सम्वत् का आरम्भ नहीं किया, वरन् पूर्व प्रचलित शक सम्वत् को ही अपने नाम से ग्रहण कर पुनः नयी तिथि से गणना आरम्भ की। रंप्सन का विचार है कि "दूसरे विदेशी आक्रमणकारियों की भांति शक भी भारत आते समय अपनी गणना पद्धति साथ लाये होंगे तथा उसका प्रयोग यहां किया होगा । ऐसी धारणा अतार्किक नहीं है ।"" पुराने शक सम्वत् के आरम्भ में दी गयी कुछ तिथियां इस प्रकार हैं : डा० जायसवाल मानते हैं कि इसका प्रारम्भ १४५ तथा १०० ईस्वी पूर्व के बीच हुआ। बाद में इसे १२३ ईस्वी पूर्व तय कर लिया गया। आर०डी० बनर्जी १०० ईस्वी पूर्व, जान मार्शल ६५ ईस्वी पूर्व, वान विजक ८४ ईस्वी पूर्व इसका आरम्भ मानते है । हर्ष फैल्टन ने १०० ईस्वी पूर्व से पु० श० सम्वत् का आरम्भ माना है जबकि मैथाडेट्स द्वितीय द्वारा शकों का सिस्तान में स्थापन किया गया । रेप्सन १५० ई० पूर्व में सिस्तान में शक राज्य की स्थापना से इस सम्वत् का आरम्भ मानते हैं । टर्न १५५ ई० पूर्व मैथाडेट्स प्रथम द्वारा सिस्तान में शक अप्रवासियों के बसने तक । डी-ल्यू के अनुसार पुराना शक सम्वत् १२६ ई० पूर्व में आरम्भ हुआ जबकि शक जातियों ने यू-ची के नेतृत्व में बैक्ट्रिया की ओर प्रस्थान किया तथा पार्थियन राजा उन्हें रोकने के प्रयास में मारा गया । वान- लो हिजन - डी-ल्यू का विश्वास है कि तिथि गणना की प्राचीन भारतीय प्रथा १०० का अंक छोड़कर गणना करने की रही है । मथुरा के अनेक ब्रह्मी अभिलेखों में ५ से ५७ वर्ष तक की तिथियां हैं जिनमें प्राचीन भारतीय प्रथा का अनुसरण किया गया है तथा १०० का अंक छोड़ दिया गया है । ५ (१-०५), १४ (११४) कुषाण सम्वत् के लिये प्रयुक्त हुआ है । मथुरा के पास के प्रथम शताब्दी के लेखों की तिथि के सम्बन्ध में यही धारणा है । एम० एन० शाह के
१. ज्योति प्रसाद जैन द्वारा उद्धृत, "द जैन सोसिज श्रॉफ द हिस्ट्री ऑफ ऐंशियंट इण्डिया ", दिल्ली, १९६४, पृ० ८३ ।
२. वही, पृ० ८२-८३ ।
३. "रिपोर्ट ऑफ द कलैण्डर रिफोर्म कमेटी", दिल्ली, १९५५, पृ० २३२ ॥