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काल गणना का संक्षिप्त इतिहास, इकाईयाँ व विभिन्न चक्र
गिनने पर एक चक्र बनता है।'' इस विचार के पीछे खगोल शास्त्र के जो नियतांक कार्य कर रहे हैं, वे ये हैं :
५ सौर्य वर्ष =५४३६६=१८३० दिन
६२ चन्द्रमाह =६२x२६, ३२/६२=१८३० दिन यह पद्धति भारत में ३०० ए० डी० तक चलती रही। "इसकी चन्द्र ब सौर्य दोनों पद्धतियों में गलती थी। सौर्य चक्र १८३०.८६६४ दिन में पूर्ण होता था तथा चन्द्रचक्र १८२६.२८१८ दिन में ही पूर्ण हो जाता था जिससे पूरे चक्र में दोनों से गलती दो गुनी हो जाती थी अर्थात् ४ दिन का दोनों में अन्तर रहता था जो छः चक्रों में एक माह के लगभग हो जाता था । अतः घनिष्ठ नक्षत्र में सूर्य व चन्द्र के पहुंचने के साथ ही नया चक्र आरम्भ कर देने की व्यवस्था थी।"२ नया चक्र आरम्भ करने में पहले वर्ष का आरम्भ नये चन्द्र से माना जाता था और जिस दिन घनिष्ठातारा निकलता था उस दिन को शीत मौसम का आरम्भ माना जाता था।
पंचवर्षीय चक्र का उल्लेख कौटिल्य अर्थशास्त्र, वेदांग ज्योतिष, महाभारत के विराट पर्व व जैन ज्योतिष में भी हआ है । एक चक्र अर्थात् पांच वर्षों को एक युग कहा जाता था । चन्द्र व सौर्य की गति का जो अन्तर छः चक्रों में आता था उसे लौंद के माह के रूप में पूरा कर लिया जाता था अर्थात् ३० चन्द्रमास अथवा ढाई वर्ष बाद एक अतिरिक्त माह जोड़ दिया जाता था। इस प्रकार ५ वर्षीय चक्र में ६२ चन्द्र माह होंगे।
इस व्यवस्था का प्रयोग राष्ट्र के व्यापक क्षेत्र में हुआ । सिद्धान्त ज्योतिष के विकास के साथ ही यह व्यवस्था समाप्त हो गयी । परन्तु अभी भी पंचांग विज्ञान पर इसका गहरा प्रभाव है।
सप्तर्षि चक्र सात तारों वाले सप्तर्षि मण्डल की गतिविधियों पर यह आधारित है अतः इसे सप्तर्षि चक्र कहा जाता है । "यह सम्वत् २७०० वर्ष का कल्पित
१. आर० श्रवण शास्त्री, 'वेदांग ज्योतिष' मैसूर, १६३६, पृ० २ २. अपूर्व कुमार चक्रवर्ती, 'इण्डियन कलैण्डरिकल साइंस' कलकत्ता, १९७५,
पृ० ७ ३. वही ४. वही, पृ०१.