________________
काल गणना का संक्षिप्त इतिहास, इकाईयाँ व विभिन्न चक्र
२१
सौर्य, चन्द्र, नक्षत्र और सावन ।" " हिन्दुओं ने वर्ष को दो भागों "अयनों” में बांटा है जो छः-छः माह का होता है । नाक्षत्र वर्ष 2 - - सूर्य से मिलने के पश्चात् जब नक्षत्र सूर्य से काफी दूरी पर पहुंच जाता है तो वह जिस रूप में पहलेपहल ऊपर उठता हुआ दृष्टिगोचर होता है वह रूप कुंडलित होता है । " आदित्य वर्ष - यह संक्रान्ति से प्रारम्भ होता है तथा पृथ्वी के सूर्य के एक चक्कर के समय के बराबर होता है । यह चैत्र में शुरू होता है ।
विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में व विभिन्न पंचांगों के अनुसार वर्ष का आरम्भ विभिन्न अवसरों पर किया जाता है । मुस्लिम पंचांगों में वर्ष का आरम्भ नौरोजा से होता है । अकेले भारत में ही ४० प्रकार के सम्वत् हैं जिनके वर्षों के आरम्भ होने के पृथक्-पृथक् समय हैं और इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि एक ही सम्वत् शक सम्वत् के वर्ष का आरम्भ भारत के विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न अवसरों से किया जाता है । यही स्थिति विक्रम सम्वत् के संदर्भ में भी है । "यदि भारतीय पंचांग का आरम्भ चन्द्रसौर्य पद्धति के आधार पर होगा तब वर्ष का आरम्भ सदैव अमान्त चैत्र शुक्ल प्रथम से होगा । यदि सौर्य है तब मेष संक्रान्ति से आरम्भ होगा । सभी पुस्तकों में मध्य मेष संक्रान्ति को सुविधा के दृष्टिकोण से वर्ष प्रारम्भ का दिन माना जाता है । बहुत कम पुस्तकों में जो वास्तविक तथ्य है, लिया जाता है । बंगाल व तमिलनाडु में जहां कि सौर्य गणना है वर्ष का आरम्भ धार्मिक व खगोलशास्त्रीय उद्देश्यों से मेष संक्रान्ति से माना जाता है । जबकि दैनिक व्यवहार व नागरिक वर्ष मेष माह के प्रथम दिन से आरम्भ होता है ।"" उत्तरी
१. पं० भगवद् दत्त 'भारतवर्ष का वृहद् इतिहास', नई दिल्ली, १६५०, पृ० १५७
"नाक्षत्र वर्ष में २७ १२ = ३२४ दिन और चान्द्र वर्ष में ३६० दिन होते हैं । अतः प्रति नाक्षत्र वर्ष में चान्द्र वर्ष से ३६ दिन न्यून होते हैं । इस प्रकार १० नाक्षत्र वर्ष ६ चान्द्र वर्षों के तुल्य होते हैं" । पं भगवद् दत्त, वही, पृ० १६४.
३. आर० समाशास्त्री, 'वैदिक कलैण्डर' नई दिल्ली, १६७६, पृ० ७६
༢.
४. वही,
५.
(अ) रोबर्ट सीवेल 'दि इडिण्यन कलेण्डर' लन्दन, १८६६, पृ०३२ (ब) अल्बेरुनी ने भी भारत में वर्ष के विभिन्न आरम्भों का वर्णन किया है । अल्बेरूनी, 'अल्बेरूनी का भारत' अनु० सन्तराम, भाग-३, प्रयाग, १६२८, पृ० १०.