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धर्म चरित्रों से सम्बन्धित सम्वत्
निर्वाण सम्वत् कहते हैं। यह बौद्ध ग्रन्थों में लिखा मिलता है और कभी-कभी शिलालेखों में भी।"१ बुद्ध निर्वाण सम्वत् बौद्ध सम्प्रदाय के धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयोग होता है तथा उनकी धार्मिक सभाओं व त्योहारों के अंकन व तिथि निर्धारण के काम आता है अतः इस सम्वत् का धार्मिक महत्व है । इसके अतिरिक्त बुद्ध निर्वाण सम्वत् इतिहास लेखन व इतिहास के उलझे प्रश्नों को सुलझाने में सहायक है। बुद्ध का निर्वाण स्वयं एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है जिसके साथ अनेक राजधंशों का इतिहास जुड़ा है जबकि बुद्ध निर्वाण तिथि का निर्धारण व खोज की जाती है तब इसके समकालीन अनेक राज्यों का इतिहास स्वयं ही सामने आ जाता है तथा उनके तिथिक्रम को निर्धारित करने में सहायता मिलती है। परन्तु इसका कोई साक्ष्य नहीं मिलता कि बुद्ध निर्वाण सम्वत का प्रयोग राजनैतिक कार्यों के लिए भी कभी किया गया। जिन शासकों ने बौद्ध धर्म अंगीकार भी किया उन्होंने इसको मात्र धार्मिक दृष्टिकोण से ही महत्व दिया। राजनैतिक क्षेत्र में या तो पूर्व प्रचलित गणना को ही अपनाये रखा अथवा अपने नये सम्वत् की स्थापना की। वैसे राजनीति में बौद्ध निर्वाण सम्वत् का न दिखना इस बात का भी संकेत हो सकता है कि इस सम्वत् का निर्धारण अभी कुछ शताब्दियों पूर्व ही हुआ हो। जिस समय भारत में बौद्ध धर्म के प्रसार व राजाओं द्वारा बौद्ध धर्म अपना लिये जाने की प्रथा थी, तब बौद्ध निर्वाण सम्वत् अथवा बुद्ध से सम्बन्धित अन्य किसी गणना पद्धति का अस्तित्व ही न हो, फिर राजनैतिक क्षेत्र में इस सम्वत् के प्रयोग का प्रश्न ही नहीं रह जाता।
अपने धार्मिक महत्व के लिए आज भी बुद्ध निर्वाण सम्वत् प्रचलित है। इसका प्रयोग विश्व भर में जहां भी बौद्ध धर्म के अनुयायी रह रहे हैं, अपने धार्मिक कृत्यों के लिये करते हैं।
महावीर निर्वाण सम्वत् जैनों के अन्तिम तीर्थांकर महावीर के निर्वाण अथवा मोक्ष प्राप्ति के समय से आरम्भ हुआ यह सम्वत् महावीर निर्वाण सम्वत् अथवा वीर निर्वाण सम्वत् के नाम से जाना जाता है। यह सम्वत् जैन धर्म के तीर्थाकर के निर्वाण से आरम्भ होता है अतः यह घटना जैन धर्मावलम्बियों के लिए धार्मिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है । इस सम्वत् का प्रयोग इसी धर्म के लोगों द्वारा धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्ति के लिए किया जाता है। किसी क्षेत्र विशेष का नाम इस सम्वत्
१. राय बहादुर पंडित गौरी शंकर हीरा चन्द ओझा, "भारतीय प्राचीन
लिपिमाला", अजमेर, १९१८, पृ० १६८ ।