________________
काल गणना का संक्षिप्त इतिहास, इकाईयां व विभिन्न चक्र
विदेशी माना है । इनके मत में हिन्दू पद्धति नैसर्गिक नहीं है तथा पूर्णतः कृत्रिम है । ह्विटने के अनुसार हिन्दुओं में स्वभाव से ही विचार करने, अवलोकन करने वस्तुभूत बातों का संग्रह करने और उनसे निष्कर्ष निकालने की क्षमता इतनी है ही नहीं कि वे मौलिक रूप से इस प्रकार के विज्ञान का विकास कर पाते । बर्जस' के विचार इस सम्बन्ध में विटने से कुछ उदार है । बर्जेस ने विटने द्वारा हिन्दुओं की भर्त्सना को अच्छा नहीं माना । ह्विटने का कहना है कि हिन्दुओं ने अपने ज्योतिष गणित और जातक मूल रूप में ग्रीकों से लिए और उनका कुछ अंश अरेबियन, खाल्डियन और चीनियों से लिया। उसके अनुसार विटने ने हिन्दुओं के साथ न्याय नहीं किया और विटने ने उचित मात्रा से अधिक ग्रीक लोगों को मान दिया है । इतना ही नहीं बर्जेस का मत है कि न केवल हिन्दुओं ने ग्रीकों से इस शास्त्र के मूल तथ्यों को लिया बल्कि ग्रीकों ने ही हिन्दुओं से इस शास्त्र की शिक्षा पाई। क्रान्तिवृत्त के १२ भाग, जातक की कल्पना, ग्रहों के नामों से वारों के नाम रखना आदि का श्रेय बर्जेस ने हिन्दुओं को ही दिया है। दर्शन, धर्म और जन्मान्तर के सम्बन्ध में जिस प्रकार हिन्दू शिष्य नहीं शिक्षक थे उसी प्रकार ज्योतिष क्षेत्र में भी यही विश्वास बर्जेस ने किया है । थीबो का भारतीय ज्योतिष पर विदेशों के प्रभाव के सम्बन्ध में विचार है कि ग्रीक से हिन्दुओं ने ज्योतिष का ज्ञान लिया अवश्य परन्तु साथ ही उत्तम हिन्दू ग्रन्थों की पद्धति ग्रीक ग्रन्थों से वैसी की वैसी ही ग्रहण न करके उसमें नये सुधारों को अपनाया गया है अर्थात् थीबों के विचार में भारतीय ज्योतिष ग्रीक व भारतीय ज्ञान का मिश्रण है।
उपरोक्त चारों विद्वानों के विचारों का अध्ययन कर शंकर बाल कृष्ण ने कुछ निष्कर्ष दिये है जो संक्षेप में इस प्रकार हैं : सर्व प्रथम बाल कृष्ण इस बात का विरोध करते हैं कि वेध परम्परा, वेध कौशल तथा अवलोकन की शक्ति भारतीयों में नहीं थी, यह आरोप मिथ्या है : “वेधसिद्ध बाते भारतीयों को सूझ ही नहीं सकतीं । यह कहना व्यर्थ सिद्ध होता है" । वर्षमान, मन्दोच्च और पात, मन्दकर्ण विक्षेपों के मान, अयन चलन, रविचन्द्र परममन्द फल, पांचों ग्रहों के परममन्द और और शीघ्रफल, क्रान्तिवृत्तयिक्त्व, सूर्यचन्द्र लम्बन,
१. बाल कृष्ण दीक्षित द्वारा उद्धृत, 'भारतीय ज्योतिष', अनु० शिवनाथ ___ झारखण्डी, प्रयाग, १९६३, पृ० ६५६ ।। २. वही, पृ० ६५६ ।। ३. वही, पृष्ठ ६६८ ।