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भारतीय संवतों का इतिहास
हिन्दू पंचांगों में दिन को तिथि कहा गया है ।' भारतीय संवतों में दिन का विभाजन प्रहर, घड़ी पल, विपल, प्रतिपल आदि में किया गया जबकि पाश्चात्य पंचांगों में घंटा, मिनट, सैकिंड आदि भाग किये गये। प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्रियों ने दो प्रकार के दिनों का उल्लेख किया है—प्रथम मानव दिन तथा द्वितीय देवों का दिन । देवों का दिन अर्थात् एक अयन का दिन व एक अयन की रात, एक अयन मानवीय दिनों के छ: माह के बराबर है अर्थात् देवों का एक दिन एक मानवीय वर्ष के बराबर है। इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म ग्रन्थों में “१००० चतुर्युगी के बराबर ब्रह्मा का एक दिन माना गया है और इतनी ही बड़ी रात होती है । ब्रह्मा जी का एक दिन एक कल्प कहलाता है ।" दिन का नाम हिन्दू धर्म ग्रन्थों में अहन् भी मिलता है । "प्रातः ब्रह्ममुहूर्त से रात्रि के लगभग १० बजे तक का समय अद्यतन माना जाना चाहिए। दिन को दिवा और रात्रि को दोषा भी कहते हैं। दिन को कई भागों में विभाजित किया जाता था । यथा प्रातः पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न व सायाह्न । रात्रि का प्रारम्भ प्रदोष से होना माना जाता था और उसे पूर्वरात्र एवं अपरात्र इन दो भागों में बांटा जाता था काल गणना का मुख्य घटक दिन या अहन था।"४ दिन और रात को मिलाकर अहोरात्र कहते थे । अहोरात्र से पक्ष व मास गिने जाते थे।
आरम्भ में मनुष्य सप्ताह को नहीं गिनते थे, सीधे चन्द्रमा के दिनों को गिनते थे लेकिन शीघ्र ही यह अनुभव किया जाने लगा कि महीनों से अधिक सुविधाजनक दिनों के छोटे समूहों को गिनना है। अतः बाजार समयावधि ग्रहण किये गये। इनमें भिन्नता थी। "पश्चिमी अफ्रीका में ४ दिन का, मध्य एशिया में ५ दिन का, मिश्र में १० दिन का सप्ताह माना जाता था।"
१. "किसी भी सूर्य दिन से तिथि का आरम्भ हो सकता था, व्यावहारिक प्रयोजन के लिए तिथि का निर्णय सूर्योदय से होता था, जो तिथि सूर्योदय के समय होती थी, वही सम्पूर्ण दिन प्रचलित रहती थी और पक्ष में वह दिन उसी तिथि की संख्या माना जाता था।" ए०एल० बॉशम, 'अद्भुत
भारत', अनु० वेकटेशचन्द्र पाण्डेय, आगरा, १९६७, पृ० ५०६ । २. डॉ० डी०एस० त्रिवेद, 'इण्डियन क्रोनोलॉजी', बम्बई, १९६३, पृ. १।। ३. मुरली मनोहर जोशी, 'हमारी प्राचीनतम कालगणना कितनी आधुनिक __ और वैज्ञानिक', 'धर्मयुग', २५ दिसम्बर, १९८३, पृ० २६ । ४. प्रभु दयाल अग्निहोत्री, 'पतंजलिकालीन भारत', पटना, १९६३, पृ० ४८५ ५. 'इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनका', वोल्यूम-तृतीय, टोक्यो, १९६७, पृ० ५६६ ।