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हैं? आप तो महादानी! वह सम्राट कहने लगा, महादानी कैसे हो सकता हूं बिना चोर हुए? पहले तो चोरी करनी पड़े, फिर दान करना पड़ता है। लाख आदमी चुरा लेता है, दो -चार हजार दान कर देता है। ऐसे चोरी के ऊपर साधु हो जाता है। चोरी करके यहां धन इकट्ठा कर लेता है, साधु होकर पुण्य करके वहां स्वर्ग में भी सिक्के इकट्ठे कर लेता है।
तुम तो योजना बनाते मृत्यु तक की, मृत्यु के पार तक की-अपने लिए, अपने बच्चों के लिए, अपने बच्चों के बच्चों के लिए, नाती-पोतों के लिए। समय के लंबे विस्तार पर तुम्हारी कामना फैल जाती है। फिर उस कामना की धुंध में से तुम देखना चाहते हो यथार्थ को, नहीं दिखाई पड़ेगा। राम को देखना चाहते काम की धुंध से, नहीं दिखाई पड़ेगा। काम की धुंध जाये तो राम दिखाई पड़े। सत्य तो मौजूद है, आंख के सामने मौजूद है, लेकिन आंखें धुंधली हो गई हैं। आंखों पर चश्मे पर चश्मे चढ़े हैं। और मजा ऐसा है कि चश्मे भी तुम्हारे नहीं हैं, चश्मे भी दूसरों के हैं।
____ कभी देखा? किसी दूसरे का चश्मा लगाकर देखा, कैसी हालत हो जाती है? कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगता है। और तुम्हारी आंख पर एकाध चश्मा नहीं है दूसरों का, न मालूम कितने चश्मे हैं। बुद्ध के, महावीर के, कृष्ण के, मोहम्मद के, जरथुस्त्र के, चश्मे पर चश्मे तुमने हर जगह से इकट्ठे कर लिए हैं। सदियों -सदियों के चश्मे हैं, वे सब तुम लगाए बैठे हो। और उनके माध्यम से तुम देखना चाहते हो, जो है उसे। नहीं, प्रपंच हो जाता है सब। सब झूठ हो जाता है। सब विकृत, कुरूप।
प्रपंच का अर्थ होता है, आंख शुद्ध न थी और देखा। और आंख ही शुद्ध न हो तो फिर तुम जो भी देखोगे वह गलत हो गया। यही माया का अर्थ है। माया का ऐसा अर्थ नहीं है कि जो चारों तरफ है वह झूठ है। जैसा तुमने देखा वैसा नहीं है। जैसा तुमने देखा वैसा झूठ है। ये पत्थर-पहाड़, ये सूरज, चांद-तारे, ये झूठ नहीं हैं, लेकिन तुमने जैसा देखा वैसा झूठ है।
कभी देखा? रात चांद निकला हो, पूर्णिमा का चांद हो, शरद का चांद हो और अगर तुम दुखी हो तो चांद भी लगता है रो रहा है। चांद क्या खाक रोयेगा! लेकिन तुम रो रहे हो। तुम्हारी आंखें आंसुओ से भरी हैं। तुम्हारी प्रेयसी खो गई कि तुम्हारा प्रेमी खो गया कि तुम्हारा बेटा मर ग्या, तुम चांद की तरफ देखते, लगता है चांद से आंसू टपक रहे हैं। तुम्हारे आंसू चांद पर आरोपित हो जाते हैं। और हो सकता है तुम्हारे ही पड़ोस में किसी को उसकी प्रेयसी मिल गई हो, उसका मित्र घर आया हो, वह आनंदमगन हो रहा हो। वह चांद को देखेगा तो देखेगा, चांद मुस्कुरा रहा, नाच रहा, गीत गुनगुना रहा। एक ही चांद को देखते हो तुम दोनों लेकिन दोनों की आंखें अलग हैं। दोनों की भावदशा अलग है। भावदशा आरोपित हो जाती है। फिर चांद नहीं दिखाई पड़ता, वही दिखाई पड़ता है जो तुम्हारे भीतर
जब तक हमारे भीतर प्रक्षेपण, प्रोजेक्टर मौजूद है तब तक हम जो भी देखेंगे वह झूठ हो जायेगा। भ्रमभूतमिदं सर्वम्।
और यह जो सब तुम्हें अब तक दिखाई पड़ा है, यह सब बिलकुल असत्य है। समझ लेना ठीक से, इसका यह मतलब नहीं है कि यह नहीं है। कि तुम जाओगे तो दीवाल से निकलना चाहोगे तो