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दिनांक 27 जनवरी, 1977; श्री ओशो आश्रम, पूना ।
अष्टावक्र उवाच।
बुद्धि - पर्यन्त संसार है - ( प्रवचन - दूसरा )
भ्रमभूतमिदं सर्वं किचिन्नास्तीति निश्चयी ।
अलक्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति।। 24611
शद्धस्फुरणरूपस्थ दृश्यभावमयश्यतः ।
क्य विधि: क्य च वैराग्यं क्य त्याग: क्य शमद्रेयि वा ।। 247।।
स्फरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः ।
क्य बंध: क्य च वा मोक्षः क्य हर्ष: क्य विषादिता ।। 2481
बद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्र विवर्तने ।
निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः ।। 24911
अक्षयं गतसंतायमात्मान पश्यतो मुनेः।
क्य विद्या च क्य वा विश्वं क्य देहोउहं ममेति वा । 125011
भूतमिद सर्वं किचिन्नास्तीति निश्चयी। अलक्ष्यस्फुरण शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति ।।
यह सब प्रपंच कुछ भी नहीं है ऐसा जानकर, ऐसा निश्चयपूर्वक जानकर अलक्ष्य स्फुरणवाला शुद्ध पुरुष स्वभाव से ही शांत होता है।'
एक-एक शब्द को ठीक से समझना । जैसा अष्टावक्र कहें वैसा ही समझना। अपने अर्थ डालना। पहला शब्द है, प्रपंच ।
भ्रमभूतमिद सर्व.... |
यह सब जो दिखाई पड़ता, सच नहीं है। जैसा दिखाई पड़ता वैसा नहीं है। हम वैसा ही देख लेते हैं जैसा देखना चाहते हैं। हम अपनी कामना आरोपित कर लेते हैं। जैसा है वैसा तो तभी दिखाई पड़ेगा जब हमारे मन में कोई भी विचार न रह जायें, जब हमारी आंखें बिलकुल खाली हों, शून्य हों; जब हमारी आंख पर कोई भी बादल न हो पक्षपात के, वासना के कामना के। तो ही जो जैसा है वैसा