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भी नहीं और राग भी नहीं, वीतरागता। ज्ञानी की प्रकृति में से भी कई बार जब कुछ खराब निकलता है तब वे वीतराग हो जाते हैं ! नहीं बोलने जैसा बुलवा देती है प्रकृति ! फिर पछतावा होता है लेकिन वहाँ पर कुछ नहीं चलता क्योंकि गुथा हुआ है न प्रकृति में! उसे 'देखते' रहना है। इतना समझ जाए तो काम हो जाएगा!
जैसे-जैसे खुद के दोष अधिक दिखाई दें, वैसे-वैसे खुश होना चाहिए। पार्टी देनी चाहिए!
दादाश्री महात्माओं की प्रकृति को सीधा कर देते थे। कोई बहुत मानी हो और उससे अगर रोज़ बात करते हों तो कभी बिल्कुल भी बात नहीं करते! ऊपर चढ़ाते और फिर पटक देते थे। ऐसे करते-करते भरा हुआ माल खाली हो जाता था और आत्मा तो वैसे का वैसा ही रहता! हर रोज़ रात को महात्माओं को प्रतिक्रमण करने चाहिए। उससे भूलें चली जाएंगी।
स्वभाव जब पुद्गलमय हो जाए तब स्वभाव और प्रकृति एक ही कहलाते हैं। वास्तव में खुद अगर खुद के रियल स्वभाव में रहे, आ जाए तो वह भगवान है! हर एक को भगवान बनने का लाइसेन्स मिलता है!
प्रकृति जब भगवान स्वरूप हो जाएगी तब मुक्त हुआ जा सकेगा। सभी के लिए यही नियम है। दादाश्री की पाँच आज्ञा ऐसी हैं कि जो प्रकृति को वीतराग बना दें।
पहले आत्मा सहज होता है या पहले प्रकृति सहज? ज्ञान मिलने के बाद दृष्टि बदल जाती है इसलिए प्रकृति धीरे-धीरे सहज होती जाती है! मूल आत्मा तो सहज है ही! यह तो, व्यवहार आत्मा असहज हो गया है!
ज्ञानी की देह भी सहज स्वरूप से और आत्मा भी सहज स्वरूप से रहते हैं! दखलंदाजी नहीं करते। दखलंदाजी करने से असहजता आ जाती
है।
[१.८] प्रकृति के ज्ञाता-दृष्टा प्रकृति चार्ज की हुई चीज़ है, पावर चेतन है। वह खुद ही डिस्चार्ज
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