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'केवल देख रहा था तुम्हें । 'जाने कब से !' 'और पुकारा, इतनी देर बाद ?' 'नहीं तो ! मैंने तो नहीं पुकारा !' 'मैंने जो वह अचूक संबोधन सुना है अभी, और मैं जग पड़ी !'
'त्रिशा, बस देख रहा हूँ तुम्हें अन्तहीन । केवल आँखें रह गया हूँ । एकाग्र आँखें । वही पुकार उठी हों, तो बात दूसरी है।'
'नाथ · · !' 'आज पहली बार वैशाली की वैदेही को देखा !'
'नहीं, इस शून्य में मुझे यों अकेली न छोड़ो । यह विदेहता असह्य हो गयी है । मुझे देह के तट पर खींचो।' : 'स्वामी !'
'देह में ही तो देखा है आज वैदेही का सौन्दर्य ! तुम्हारे सर्वांग रूप में देखी है, वह चम्पक आभा। इतनी स्पर्शित मेरी देह से सहज, कि पुकारना, छूना, कुछ भी आवश्यक न रहा ।'
'देव, लगता है, आज पहली बार आये हो मेरे पास ! इससे पहले जो तुम आये, नहीं जानती कौन थे ?'
'मैं सिद्धार्थ नहीं था ?' 'नाम-रूप से मुझे मत परखो । तुम, जो केवल तुम हो, आज ही तो आये
'मतलब ?'
. . . 'देश काल के जाने कितने असंख्य कुंचित यात्रा-पथों में तुम्हें पुकारती भटक रही थी, जाने कैब से। उस भटकन में आज तुमने पहली बार पुकारा, और मैं लौट आई । निरी वायवी हो गई हूँ। मुझे देह-तट में खींच लो समूची !'
महाराज अपने तन-मन के समूचे आलोड़न को आँखों में एकाग्र कर, त्रिशला की आँखों की उस अगाध डूबन में जैसे तैर गये।
‘स्वामी, पा गयी तुम्हारी तैरती बाहुओं के किनारे ।' "प्रियकारिणी, कैसी सुहानी रात है यह ! बाहर आषाढ़ की पहली बदली बरस रही है। सब कुछ एकाकार हो गया है। जल : 'जल' · ·और केवल जल।
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