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परित्राता का पारिणग्रहण
___ मुझे तो कहीं कोई दुःख नहीं, कष्ट नहीं। कोई अभाव, कोई आरति मैं नहीं जानता। बाहर राजमहल का विपुल वैभव है, भोग-सामग्री है, भीतर सहज भुक्ति की तृप्ति सदा अनुभव करता रहता हूँ। जगत के सारे सम्भव सुख-भोग, सम्मुख समर्पित खड़े मेरा मुँह ताकते रहते हैं। पर भीतर कोई अभाव अनुभव नहीं होता, तो क्या करूँ ! क्यों भोगं, क्या भोगें, कौन भोगे? लगता है, मेरे ही भीतर से ये भोग, नाना रूप धारण कर बाहर प्रवाहित होते रहते हैं। भोक्ता भी मैं ही, भाग्य भी मैं ही। फिर भोगने और न भोगने का प्रश्न ही कहाँ उठता है !
· · · फिर भी आज तीन दिन हो गये, जाने कैसी यह एक वेदना मेरे तन के अणु-अण में व्यापती चली जा रही है। हवा और पानी की पों से भी महीन जाने कितने सूक्ष्म फल निरन्तर मेरे प्राणों को बींधते चले जा रहे हैं। मेरी अपात्य और अभेद्य अस्थियों में यह कैसा उबलता लावा और लोहा-मा भिदता चला आ रहा है। तीन रात, तीन दिन हो गये, ठहराव शक्य नहीं रहा। लेटना, बैठना तो दूर, खड़े तक नहीं रहा जाता। उद्धांत और वेचैन इस महल के सारे खण्डों में चक्कर काट रहा हूँ। चल रहा हूँ, चल रहा हूँ, अविराम चल रहा हूँ। चलते ही चले जाना है। चले जाना है, जाने कहाँ चले जाना है। कहाँ जाना होगा, पता नहीं । पर आकाश और धरती के बीच अब कोई मुकाम सम्भव नहीं है।
आज मध्य रात्रि के इस स्तब्ध अन्धकार में यह कौन चीख उठा है ! मारा राजमहल डोल उठा है : धरती और आकाश विदीर्ण हो गये हैं . . । ____ 'प्रभु, काम्बोजी अण्व प्रियंकर राजद्वार पर आ खड़ा हुआ है। वह स्वामी को पुकार रहा है !'
'गारुड़, क्या चाहता है वह ?'
'तीन दिन-रात हो गये, वह छटपटाता हुआ घुड़साल में फेरी देता रहा है। उसकी तिलमिलाहट और हिनहिनाहट सही नहीं जाती। जान पड़ता है रात
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