Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 320
________________ ३१. के द्वार पर मैंने मंगल-पुष्करिणी के जल को मुक्त करके जो जनगण का अभिषेक कर दिया, और फिर उसके मंच से जो मैं बोला, उसके बाद मैंने देखा कि वैशाली ने स्वयम् ही अपना आत्मदान जगत के प्रति कर दिया। अब जो वहां हो रहा है, वह उस दान की लोक-व्याप्ति की एक अनिवार्य प्रक्रिया है। इस आत्मदान में से वैशाली का और आपका कल्याण ही प्रतिफलित होगा, इसमें मुझे रंच भी सन्देह नहीं है। इस प्रक्रिया को आप केवल धैर्यपूर्वक देखें : और विश्वास रक्खें कि इस विप्लव-चक्र की वल्गा वर्द्धमान के हाथ में है। वह यहां रहे, या विजन कान्तार में रहे, इस चक्र की धुरी पर वह बैठा है, यह आस्था अपने मन में अटूट रक्खें। क्या आपको अपने बेटे की सचाई पर विश्वास नहीं• • • ?' 'अविश्वास तुम पर करूं बेटा, तो अपनी आत्मा को ही खो बैलूंगा। जब तुम बोलते हो, तो आश्वासन की समाधि-सी अनुभव होती है। पर तुम्हारी चेतना के शिखर पर, सदा तुम्हारे साथ खड़े रह सकने की सामर्थ्य तो हमारी नहीं। सुनूं, क्या है हमारे परित्राण का वह उपाय, जो तुम्हारे मन में चल रहा है।' 'परित्राण केवल मेरा या आपका नहीं, सर्व का एक साथ ही हो सकता है। उसकी मार्ग-रेखा इस सामने के सूर्य की तरह मेरे हृदय में स्पष्ट है। मुझे अपना ही निःशेष आत्मदान कर देना होगा। अपना सम्पूर्ण आत्मोत्सर्ग करेगा वर्द्धमान ! इसके लिए उसे कायोत्सर्ग में चले जाना होगा। देख तो रहे हैं आप, लोक में चारों ओर अनर्गल इच्छा-वासनाओं के हवन-कुण्ड धधक रहे हैं। स्वार्थी सवर्णी ब्राह्मणक्षत्रिय-वैश्य एक जुट होकर, अपनी लालसाओं और स्वार्थों की पूर्ति के लिए, लाखों पशुओं और निर्बल मानवों की, अपने पाखंडी यज्ञ-कुण्डों में आहुतियां दे रहे हैं। फिर भी देखता हूँ, उनकी इच्छाओं का अन्त नहीं। उनकी वासनाएँ तृप्त नहीं हो पा रहीं। उनकी निःशेष वासनाओं की चरम तृप्ति के लिए, वर्द्धमान स्वयम् सर्वकामपूरन यज्ञ करेगा। वह स्वयम् ही होगा उसका एक मात्र अग्निहोत्री। उसका स्वयम् का जीवन बनेगा उसका हवन-कुण्ड, और स्वयम् वर्द्धमान उसका होता हो कर, उसमें अपनी निःशेष आत्माहुति देगा। इन लाखों निर्बल, निर्दोष प्राणियों और अज्ञानी मानवों का हत्याकांड और शोषण जब तक लोक में चलेगा, तब तक किसी का भी त्राण सम्भव नहीं। अपनी आत्माहुति द्वारा, मैं अनादिकाल से सन्तप्त, परस्पर एक-दूसरे की हत्या में रत जीव मात्र को उद्बुद्ध करूँगा ! उसी परम यज्ञ का याज्ञिक बना कर महासत्ता ने मुझे यहाँ भेजा है। और यह मेरी अपनी निःशेष आत्माहुति चाहता है। ऐसी कि तपाग्नि में तप-तप कर, गल-गल कर, भस्मसात हो कर, इस सृष्टि के कण-कण के साथ आत्मसात् हो जाऊँ। केवल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394