________________
था । देखा है, कई साँझों में हिमवान की अगोचर चूड़ाएँ मेरी आँखों में झलकी हैं, और मेरे प्राण आक्रन्द कर उठे हैं । पार-पारान्तरों की विह्वल पुकार सुनाई पड़ी है। जैसे सब कुछ को जाने बिना, सब कुछ में पहुँचे बिना, मैं रह नहीं सकता, जी नहीं सकता । हर दूरी के छोर पर, मानो मेरा कोई है । 'दिगन्त के वातायन पर वह कौन प्रिया, जाने कब से मेरी प्रतीक्षा में है । एक अज्ञात और अबूझ विरहवेदना मेरी आत्मा में सदा टीसती रही है ।
३१८
'तेरी भटकनें और उचाट क्या मुझ से छिपे हैं ! बस, चुप रह कर सब सहती रही। पूछने आई तेरे जी की व्यथा, पर तू या तो चुप रहा, या टाल गया । इसी से तो कई बार चाहा, लालू, कि अपने मन की सुन्दरी तू चुन ले, विवाह कर ले, तो तेरा यह भटकाव समाप्त हो जाये .!'
...
।
"जानता हूँ, मेरी व्यथा तुम्हें सर्वथा अनजानी नहीं थी । मुझे बिरमाने और बहलाने के कम जतन तुमने नहीं किये। सारे आर्यावर्त की सर्व सुन्दरी बालाओं को तुम इस महल में ले आईं, कि मैं किसी को अपना लूं, चुन लूं । पर अपने स्वभाव की विवशता का क्या करूँ, माँ किसी एक या कई सुन्दरियों को अपना कर भी मेरा जी विरम नहीं पा रहा था। * तब विवाह की मर्यादा में अपने को कैसे बाँधता । बार-बार यही लगा है कि त्रिलोक और त्रिकाल की तमाम सुन्दरियों को एकाग्र और समग्र पाये बिना मुझे चैन नहीं आ सकता । असीम और अनन्त के उस आलिंगन - काम ने, किन्हीं दो बाँहों में मुझे बँधने न दिया । लगता है, जाने कितनी प्रियाएँ, कहाँ-कहाँ, कितने जन्मान्तरों में मुझ से बिछुड़ी रह गई हैं । जाने किन अपरिक्रमायित सागरों के कटि-बन्धों में वे मेरा आवाहन कर रही हैं ! जाने कितने अज्ञात द्वीपों और देशों में, जाने कितने दीपालोकित कक्षों में मेरी मिलन- शैया बिछी है । सौन्दर्य और प्यार की ऐसी अन्तहीन पिपासा और पुकार, प्राण में लेकर, तुम्हीं बताओ माँ, मैं कैसे किसी एक बाँह, वक्ष, कक्ष या शैया में बन्दी हो सकता था। जो भी प्रिया, प्रीति या सौन्दर्य सामने आया, उसे अपनाया, समा लिया अपने में : पर उसकी सीमा में समा कर, मैं अटक न सका । उसे अपने में समेट कर, मैं सदा उससे, अपने से तक अतिक्रान्त होता चला गया । यह मेरे स्वभाव की विवशता रही माँ, मैं कर ही क्या सकता था ! '
'कुछ ऐसा ही तो मन बालापन में तेरी माँ का भी था, मान । ऐसे ही संवेदनों से मेरी किशोर चेतना सदा कांदती रहती थी । इसी से तो तेरी इस वेदना को अपने मन के मन में अनजाने ही अनुभव करती रही हूँ। तेरी यह कसक जैसे मेरे गर्भ
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org