Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 359
________________ को गौण कर दिया। मगर महावीर तत्व तक पहुँचे बिना न रह सके । सो वे तत्व के स्वभाव को ही अस्तित्व में उतार लाने को बेचैन हुए । ताकि जीवन की समस्याओं का जो समाधान इस तरह आये, वह केवल तात्कालिक निपट बाह्याचार का क़ायल न हो; वह स्वयंभू सत्य का सार्वभौमिक और सार्वकालिक प्रकाश हो । वह केवल माविक और कारुणिक न हो : वह तात्विक, स्वाभाविक बौर स्वायत्त भी हो । स्वयम् तत्व ही भाव बन कर जीवन के आचार में उतरे । उनका प्राप्तव्य चरम-परम सत्ता-स्वरूप था, इसी कारण उन्होंने इतिहास में अप्रतिम, ऐसी दीर्घ और दुर्दान्त तपस्या की । वस्तु मात्र और प्राणि मात्र के साथ वे स्वगत और तद्गत हो गये । सर्वज्ञ अर्हत् महावीर में स्वयम् विश्वतत्व मूर्तिमान होकर इस पृथ्वी पर चला । ईसापूर्व की छठवीं सदी में, समूचा जगत अन्तिम सत्य को जान लेने की इस बेचनी से उद्विग्न दिखाई पड़ता है । सारे लोकाकाश में एक महान अतिक्रान्ति की लहरें हिलोरे लेती दीखती हैं । उस काल के सभी द्रष्टा और ज्ञानी विचार को आचार बना देने के लिए, धर्म को कर्म में और तत्व को अस्तित्व में परिणत कर देने को जूझते दिखाई पड़ते हैं । इसी मे सक्रिय ज्ञान (डायनामिक नॉलेज) के घुरन्धर व्यक्तित्व, उस काल के भूमण्डल के हर देश में पैदा हुए। महाचीन में लाओत्स, मेन्शियस और कॅन्फ्यूसियस, यूनान में हिराक्लिटस और पायथागोरस, फिलिस्तीन में येमियाह और इझेकिएल तथा पारस्य देश में जस्त्र, और भारत में महावीर और बुद्ध एक साथ, आत्म-धर्म को सीधे आचार में उतारने की महाकियात्मिक मंत्रवाणी उच्चरित कर रहे थे । वस्तुतः वह एक सार्वभौमिक क्रियावादी अतिक्रान्ति का युग था । महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण-शती की गूंज जब चारों ओर के वातावरण में सुनाई पड़ी, तो अनायास मेरे मन में यह भाव उदय हुआ, कि क्यों न भगवान के व्यक्तित्व और कृतित्व पर कोई सृजनात्मक काम किया जाए । राम, कृष्ण, बुद्ध, क्रीस्त केवल सम्प्रदायों तक सीमित नहीं रह सके हैं। इतिहास और साहित्य दोनों ही में उन पर पर्याप्त अन्वेषणात्मक और सृजनात्मक कार्य हुआ है । उनकी तुलना में महावीर इतिहास के पृष्ठों में बहुत घुंघले पड़ गये दिखाई पड़ते हैं । साम्प्रदायिकता के घेरे से परे, विश्व- पुरुष महावीर ज़िन्दा 'इमेज' न इतिहास में सुलभ है, और न जगत के दर्शन और साहित्य की कोई सही और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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