Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 386
________________ ३२ पर्याय (फॉर्म) से वह प्रतिबद्ध कैसे हो सकती है । तब स्पष्ट है कि उस सत्ता के मुर्तिमान अवतार महावीर के उच्चार, व्यवहार और तौर-तरीके महज परम्परा के अनुगामी नहीं हो सकते । परम्परा एकमात्र मौलिक सत्य की ही अटूट और शिरोधार्य हो सकती है : उस सत्य के व्यंजक रूप-आकारों की परम्परा तो अपना काम समाप्त करके कालान्तर में, स्वयम् ही जर्जर-जीर्ण होकर सूखे पत्ते की तरह झड़ जाती है । और यदि वह सड़-गल कर भी मोहग्रस्त मानव चेतना से चिपटी रह जाये, तो नवयुग विधाता तीर्थंकर और शलाका-पुरुष अपने मौलिक सत्य-तेज के प्रहार से उसे ध्वस्त कर देते हैं। महासत्ता के इसी शाश्वत नियम-विधान के अनुसार तीर्थंकर महावीर ने, पुरातन पर्यायों के सारे जड़ीभूत ढाँचों और परम्पराओं को बड़ी निर्ममता से नेस्तनाबूद कर दिया था। वे एक स्वयम्भू-परिभू परम सत्ताधीश्वर थे, और उनके स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त प्रत्येक विचरण, आचरण और प्रवचन से, ह्रास-ग्रस्त युग-स्वरूपों का ध्वंस होता चला गया था, और नवीन युग-तीर्थ का प्रवर्तन होता चला गया था। एक बारगी ही प्रलय और उदय की धुरा पर बैठा वह सत्यन्धर, अपने तृतीय नेत्र से जड़-पुरातन को ज़मींदोज़ करता हुआ, नूतन रचना के सूर्य मुसलसल बहाता चला गया था। इसीसे निवेदन है कि परम्परा से उपलब्ध जैन शास्त्रों और सिद्धान्तों की शाब्दिक कसौटी पर यदि कोई धर्माचार्य या पंडित महानुभाव मेरे महावीर को कसने और परखने की कोशिश करेंगे तो उन्हें निराश होना पड़ेगा। इसी प्रकार कोई इतिहासविद् ईसा-पूर्व छठवीं सदी के सटीक ऐतिहासिक ढांचे में मेरे महावीर को फिट करके जांचना चाहेंगे, तो उनके पल्ले भी निराशा ही पड़ सकती है। जो महावीर परा-ऐतिहासिक भी थे, वे अपने युग में घटित होकर भी, उसकी तथ्यात्मक परिधि में सीमित नहीं पाये जा सकते। वे आज के रचनाकार के विजन-वातायन पर ठीक आज के भी लग सकते हैं। कोई भी मौलिक प्रतिभा का सृजक कलाकार, अपने भीतर मौलिक सत्ता का यत्किचित् प्रकाश लेकर ही जन्म लेता है। वह योगियों और तीर्थंकरों का ही एक सारस्वत सूर्य-पुत्र होता है। इसीसे वह शास्त्र और इतिहास पढ़कर रचना नहीं करता, वह स्वयम् नूतन शास्त्र और इतिहास का उद्घाती होता है। 00 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394