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उन्हीं का उच्छवास है, उन्हीं का चिद्विलास है, मेरा वाग्विलास नहीं । हाँ, इसकी त्रुटियाँ और सीमाएँ जो भी हों, वे मेरे पात्र की न्यूनता का ही परिणाम कही जा सकती हैं। .
मेरे सारस्वत द्विजन्म की मातृभूमि इन्दौर की 'श्री वीर-निर्वाण-ग्रन्थप्रकाशन-समिति' के मंत्री श्री बाबूभाई पाटोदी ठीक निर्णय-मुहूर्त में, श्रीमहावीरजी में आ उपस्थित हुए। मुनिश्री ने उन्हें ही इस अक्षर-यज्ञ का ऋत्विक नियुक्त किया। उनके माध्यम से इन्दौर ने और 'समिति' ने कवि का और रचना का भार उठा लिया। उस प्रथम क्षण से ही बाबूभाई के मुंह से यह अभीप्सा सतत व्यक्त होती रही; 'वीरेन् भाई, तुम्हारी इस कृति को विश्वव्यापी होना है।' और अपने इस संकल्प को सिद्ध करने के दौरान, इसके लेखन और प्रकाशत के इस क्षण तक बाबूभाई का जो गर्वीला लाड़प्यार और वात्सल्य मुझ पर बरसता रहा, उसे शब्दों में नहीं सहेजा जा सकता। पर उनकी अभीप्सा को मैं सम्पन्न कर सका या नहीं, इसका निर्णय तो समय ही करेगा।
'श्री वीर-निर्वाण-ग्रंथ-प्रकाशन-समिति' के कर्ता-धरता हैं श्री मानकमाई पांड्या। श्रीभगवान के अदृश्य देवदूत की तरह, इस रचना-काल में अपने अथाह मौन प्यार से वे मुझे घेरे रहे हैं। विज्ञापन-प्रकाशन और यशःकाम से अलिप्त इस साधुमना व्यक्ति के मार्दव, आर्जव और निष्काम सेवा-भाव के आगे सदा मेरा माथा श्रद्धा और कृतज्ञता से झुक गया है। मानवत्व में देवत्व की छाया यहां मैंने देखी, और अचूक देखी ।
'तीर्थकर' के सम्पादक डॉ. नेमीचन्द जैन हमारे युग की वेदना के एक अनोखे चिन्तक, और न तन विश्व-सन्धान के तपोनिष्ठ साधक हैं । मेरी इस रचना के दौरान, आदि से अन्त तक, जैसे वे मेरी हृदय-धड़कन बन कर मेरे साथ रहे हैं। इस अवधि के मेरे संघर्षों, पीड़ाओं और थकानों में, वे मुझे अकम्प बाँह से थामे और साधे रहे हैं। पत्र-व्यवहार के माध्यम से, इस उपन्यास की समूची रचना-प्रक्रिया के वे एकमेव साक्षी और गोप्ता हो कर रहे। आज के युग में ऐसा अन्तर्सखा कहाँ सुलभ होता है। उनके और मेरे अनुज माई प्रेमचन्द जैन भी मानकमाई की तरह ही, इस काल में अपनी दिव्य आत्मीयता की गोद में चुपचाप मेरी अविश्रान्त सृजनरत काया और चेतना को सहलाते रहे, और उसे अपने प्यार का अमृत पिलाते रहे।
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