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समापन
अगम और अथाह की इस खतरनाक़ खोज-यात्रा में महाशक्ति ने मुझे आत्मतः अकेला ही रक्खा है। महावीर तक पहुँचने के लिए, एक हद के बाद सर्वथा अकेले हो ही जाना पड़ता है। जब तक दो हैं, उस एकमेवाsद्वितीयम् की झलक कैसे पायी जा सकती है। · · फिर भी वस्तुतः देला है, कि इस बीच मेरे हृदय में गुरुजनों का कृपा-वसन्त निरन्तर छाया रहा है, और मेरे कई प्रियजनों का स्नेह-सम्बल मुझे यथास्थान चारों ओर से थामे रहा है। उन सबको यहाँ स्मरण किये बिना समापन सम्भव नहीं।
गणेशपुरी के नित्यानन्द-तीर्थ में श्रीगुरु एकाएक बोल उठे : 'लिखो . . . लिखो · · लिखो . . .' । शोलापुर की बाल-तपस्विनी सुमति दीदी (पद्मश्री पं० सुमतिबाई शहा) ने श्रीभगवान के आवाहन का मंगल-स्वस्तिक मेरे हृदय पर अंकित किया । पॉण्डीचेरी के समुद्र-तट से श्री माँ का सुवर्ण-नील आशीर्वाद प्राप्त हुआ। और श्री महावीरजी में विश्व-धर्म के अधुनातन मंत्र-द्रष्टा श्रीगुरु विद्यानन्द का अविकल्प आदेश सुनाई पड़ा : 'विश्व-पुरुष महावीर पर उपन्यास लिख कर, उनके इस विश्व-व्यापी निर्वाणोत्सव की मंगल-बेला में अपनी कलम को कृतार्थ करो।' महाकाव्य लिखने के मेरे अनुरोध पर वे बोले : 'उपन्यास के रूप में ही अपना महाकाव्य लिखो। यही युग की पुकार है । उपन्यास के माध्यम से ही तुम्हारी श्रीमहावीर-कथा आज के जन-जन के हृदय तक पहुँच सकेगी। और वह उसे होना है, यह मैं स्पष्ट देख रहा हूँ। मेरे सारे विकल्प श्रीगुरु-आदेश के सम्मुख समाप्त हो गये। और यह उपन्यास प्रस्तुत है ।
श्रीमहावीरजी के प्रांगण में ही इस कृति का बीजारोपण हुआ था। यह घटना एक गम्भीर आशय रखती है। चाँदनपुर के उन त्रैलोक्येश्वर प्रभु की परम इच्छा ही, मुनिश्री के मुख से मुखरित हुई. थी। उन भगवान का वह निर्णय अटल था। और इस रचना के शब्द-शब्द के साथ मुझे यह अविकल्प प्रतीति होती रही है, कि चाँदनपुराधीश्वर श्री महावीर ही मेरे कवि की कलम से स्वयम् अपने चरित का गान और पुनराख्यान कर रहे हैं । यह कृति
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