Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 390
________________ तमाम दूरियों के बावजूद, आज तक उसके सतत विकास के प्रेरणा-स्रोत होकर वे रहे। ऐसे आत्मीय सम्बन्ध जगत में कितने दुर्लभ होते हैं ! सोच कर मेरा हृदय सुख से विभोर हो जाता है। ____ मेरा एकमात्र सहोदराधिक आत्म-त्यागी भाई श्रीकुमार 'मुक्तिदूत' से लगाकर इस कृति तक, मेरी रचना-प्रक्रिया का प्रथम साक्षी और अटूट सम्बल रहा है। सौ. अनिला रानी की अक्षुण्ण शील-तपस्या ने ही, मृत्यु-मुख से एकाधिक बार मुझे खींचकर, यह लिख सकने को मुझे जीवित रक्खा है। मेरी कुशल कथा-शिल्पी बेटी ज्योत्स्ना मिलन मेरी इस कथा के रचाव को अपना सम्पूर्ण समर्थन देती रही । अभिन्न रमेश (रमेशचन्द्र शाह) की निर्मम समीक्षा-दृष्टि भी इसके कई अंशों को सुन कर मुग्ध और स्तब्ध हुई है। इस रचना के दुःसाध्य 'एडवेंचर' और खड़ी चढ़ाइयों के बीच, मेरे आत्मज ज्योतीन्द्र जैन और पवनकुमार जैन की तटस्थ कला-दृष्टि से जो परामर्श और प्रोत्साहन मुझे मिलता रहा, उससे रचना के सधाव में और अपने पथ पर अडिग रहने में मुझे बेहद मदद मिली है। बम्बई के अपने नित्य के साथी-संगियों में, मेरे अभिन्न भाई जितेन्द्र पटनी, आत्मवत् भाई श्रीहरि, हरिमोहन शर्मा और सम्पत ठाकुर यह कहते नहीं अघाये कि यह रचना अपने समय का अतिक्रमण कर जीवित रहेगी । साघुमना जीवन-तपस्वी और स्वतंत्र चिंतक मेरे प्यारे भाई जमनालाल जैन तथा महावीर की फकीरी ले कर, सारे देश को पद-यात्रा कर रहे तेजस्वी चितक भाई भानीराम वर्मा 'अग्निमुख' का उद्बोधत, मेरी इस रचना को अद् मुत शक्ति देता रहा है। मेरे निष्काम आत्मार्थी स्नेही श्री रमणीक भाई जवेरी ने मेरे महावीर के भारत में पुनर्पगधारण के इस मुहूर्त में उन त्रिभुवन-सम्राट प्रभु को राजतिलक लगाया है। मेरा सौभाग्य कि महावीर के प्रेम की एक सजीव मूरत उनके भीतर मुझे सुलभ हुई है। इस देश के जिन हजारों पाठकों और मुग्ध भावकों ने समय-समय पर प्रकाशित इस उपन्यास के अंशों को जो प्यार और अपनत्व दिया है, वह मेरे यहाँ जीवन-धारण की एकमात्र कृतार्थता है । उनके मन्तव्यों की मुझे सदा प्रतीक्षा रहेगी।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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