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होती है, उसके यथेष्ट कलात्मक और सौन्दर्यात्मक सर्जन के लिए, त्रिलोक
और त्रिकाल के अधीश्वर कहे जाते तीर्थंकर के उस परम महिमा-मंडित स्वरूप की सचोट कलात्मक अपील उत्पन्न करने के लिए, उनके व्यक्तित्व के अलौकिक ऐश्वर्यशाली परिवेश को स्वीकारना मुझे अनिवार्य प्रतीत हुआ। उसे काट-छाँट देने पर तो उनकी वह त्रैलोक्येश्वर वाली इमेज ही खत्म हो जाती है. जिसके चरणों में लोक-लोकान्तरों के सारे वैभव समर्पित हो जाते हैं। देवलोकों के अकल्पनीय सुख-भोग और ऐश्वर्य भी, मर्त्यलोक के उस मत्युंजयी अतिमानव के क़दमों में पड़कर, अपनी तुच्छता और निःसारता प्रकट करते हैं। ___ हक़ीक़त चाहे जो भी हो, लेकिन आदिकाल से आज तक के सारे कवियों, कलाकारों और शिल्पियों ने प्रतीकों के रूप में ही सही, अतिमानवों के सर्जन में, उनके परिपार्व के रूप में, उनके अलौकिक परिसर का सौन्दर्यात्मक उपयोग तो किया ही है। पं. जवाहरलाल ने वहत सही कहा था कि मिथकों और पुराकथाओं को हमें वास्तववादी नज़र से नहीं पढ़ना चाहिये, उन्हें रूपकों के रूप में पढ़कर उनके गहरे मावाशय में उतरने की कोशिश करनी चाहिये ।
बौद्ध आगमों में ईसापूर्व छठवीं सदी के भारत का एक सांगोपांग वस्तुनिष्ठ भौगोलिक और ऐतिहासिक स्वरूप उपलब्ध होता है। इसी कारण उस काल के भारत का ऐतिहासिक स्वरूप उभारने के लिए, भारतीय और पश्चिमी समी इतिहासविदों और शोघ-विद्वानों ने बौद्ध आगमों को ही मुख्य स्रोत के रूप में अपनाया है । इस माने में जैन आगमों के संदर्भ गौण स्रोत के रूप में ही ग्रहण किये गये हैं। जैनागमों में चित्रित महावीर ऐतिहासिक से अधिक पौराणिक ही हैं। सो उनके आधार पर महावीर की कोई ऐतिहासिक व्यक्तिमत्ता रचना सहज साध्य नहीं लग रहा था। लेखन के आरंभ में मेरी कुछ धुंधली-सी परिकल्पना ऐसी ही थी कि मुझे एक तीर्थंकर को मनोवैज्ञानिक तरीके से एक विराट् आध्यात्मिक और लोक-परित्राता व्यक्तित्व प्रदान करना है। उसके लिए एक वास्तविक पृष्ट-भूमि रचने के उपक्रम में जब मैं बौद्धागमों में उतरा और राइस डेविड आदि उस युग के प्रामाणिक इतिहासकारों को मैंने टटोला, तो वैशाली के विद्रोही राजपुत्र वर्द्धमान महावीर का एक सांगोपांग मूर्त स्वरूप मेरी आँखों आगे उभरता चला आया। उस
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