Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 370
________________ १६ में तीर्थंकर के गर्भाधान, जन्म, अभिनिष्क्रमण, कैवल्य-प्राप्ति तथा निर्वाण के प्रसंगों को पंच कल्याणक कहा गया है। इन अवसरों पर विभिन्न स्वर्गों के इन्द्र-इन्द्राणी, देव-देवाङ्गना, यक्ष-गन्धर्व, अप्सराएँ आदि अघि दैविक सत्ताएँ तीर्थंकर के कल्याणक उत्सव का समारोह करने को पृथ्वी पर आते हैं। मैंने अपनी कथा में ध्यान-विजन के माध्यम से उपरोक्त देव-लोकों के घरती पर उतरने को स्वीकार किया है। तकनीकी युक्तियों द्वारा पार्थिव प्रसंग में उनके दिव्य वैभव के अवतरण को ज्यों का त्यों चित्रित किया है। इस प्रयोग के पीछे दो हेतु मेरे मन में रहे हैं। पहला यह कि उक्त दिव्य परिवेश से मंडित जो तीर्थंकर की 'इमेज' सदियों से हमारे लोकमानस में बद्धमूल है, उसे विच्छिन्न करना मुझे उचित नहीं लगा । वह कुछ वैसा ही लगता है, जैसे किसी परिपूर्ण कला-कृति को उसके फलक, कम्पोजीशन (संरचना), परिवेश, वातावरण से हटा कर, उसकी संगति, सिम्फनी और संयुक्ति ( यूनिटी) को भंग कर दिया गया हो। सदियों से जो तीर्थंकर स्वरूप लोक के अवचेतन और अतिचेतन में संस्कारित है, उसे खडित करके यदि हम उसका कोई सुधारवादी चित्र उभारेंगे, तो लोक-मन के प्रति उसकी अचूक अपील सम्भव न हो सकेगी। इसी कारण जहाँ एक ओर मैंने बाह्य महावीर की परम्परागत (ट्रेडीशनल ) 'इमेज' को यथा-स्थान अक्षुण्ण रक्खा है, वहाँ दूसरी ओर उनकी ज्ञानात्मक चेतना, भाव- चेतना और सारे वर्तनव्यबहार को रूढ़ दार्शनिक और चारित्रिक मान्यताओं से मुक्त करके, एक सहज प्रवाही, स्वयम् - प्रकाश, गति - प्रगतिमान (डायनामिक ) टू-डेट महावीर को प्रस्तुत किया है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से लोक -हृदय में 'डायनामिक' महावीर को प्रतिष्ठित करने के लिए यही समायोजन मुझे सबसे कारगर प्रतीत हुआ । इस किताब को लिखने के दौरान अक्सर मुझे कई साहित्यिक मित्रों तथा इस देश के मूर्धन्य पुरातात्विक और शोध-पंडितों तक ने बार-बार सावधान किया, कि मुझे अपने उपन्यास में शास्त्रों में वर्णित अलौकिक तत्वों, चमत्कारिक अतिशय-प्रसंगों ( सुपचर - नेचरल फिनॉमना ) आदि को छाँट देना चाहिये। नहीं तो आज के जन-मन को मेरा महावीर अपील न कर सकेगा। इन घीमानों और विद्वानों के ऐसे सुझावों पर अक्सर मुझे बहुत हँसी आई है। आज के जन-मन का उनका ज्ञान कितना किताबी, अख़बारी और उथला है. यह स्पष्ट हुआ है। किसी भी कृतित्व को ग्रहण करने वाला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394