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अतीत में हुए वेद-उपनिषद् के मन्त्रोच्चार, या अन्य ज्योतिघरों की उपदेशवाणियों को तादृष्ट सुन सकें, और उनके सर्वांग व्यक्तित्वों और उनकी जीवन-लीलाओं को प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देख सकें। जब स्थूल-दर्शी भौतिक विज्ञान भी ऐसी कालभेदी उपलब्धि करने की बात सोच सकता है, तो मनुष्य को सूक्ष्म-दर्शी मानसिक और आत्मिक ज्ञान-शक्ति तो निश्चय ही उससे आगे जा कर, देश-काल के आरपार व्याप्त सूक्ष्म सत्ताओं का और भी अधिक ज्वलन्त और सारांशिक साक्षात्कार कर ही सकती है। कल्पना शक्ति भी मनुष्य की एक ऐसी ही मानसिक-भाविक अतिदूरगामी, ऊर्ध्वगामी और अन्तर्गामी क्षमता है, जो आत्यन्तिक सृजनोन्मेष और तीव्र संवेदना के क्षण में, अपनी लक्ष्यभूत किसी भी सत्ता या अतीत व्यक्तिमत्ता की एक खास 'वैव-लेंग्थ' (कम्पन-पटल) को स्पर्श कर, उसमें अक्षुण्ण विद्यमान उस सत्ता की सूक्ष्म परमाणविक पर्याय को पकड़ सकती है, उसका सचोट आकलन और अंकन कर सकती है।
उपनिषदों में और उससे प्रसूत वेदान्त में, इस सारी बाह्य सृष्टि को मनोमय कहा गया है। यानी कि इसका अस्तित्व केवल हमारे मन से उद्भुत कल्पना-तरंगों में है। अन्ततः अपने आप में इसका कोई ठोस अस्तित्व है हो नहीं। यह सब-कुछ महज़ हमारी कल्प-शक्ति का खेल है। इससे यह निष्कर्ष हाथ आता है कि मनस्तत्व में सब-कुछ सतत विद्यमान है। मूत, वर्तमान, भविष्य की किसी भी सत्ता को लक्ष्य कर, यदि एक सतेज संकल्प शक्ति से हम उसे खींचें, तो वह सत्ता यथावत् हमारी मानसिक चेतना में मूर्तिमान हो सकती है। वेदान्त के प्रतिनिधि और प्रामाणिक ग्रन्थ 'योग वासिष्ट' में एक दष्टान्त-कथा आती है, जिसमें यह दिखाया गया है कि एक व्यक्ति को एक कुटीर में बन्द कर दिया जाता है, और कुछ ही घण्टों में वह विगत हजारों वर्षों के अपने कई जन्मान्तरों को तादष्ट अपनी सम्पूर्ण अनुभूति-चेतना के साथ जी लेता है। जैन पुराण आत्माओं के जाति-स्मरण, यानी उनके कई-कई पूर्व जन्मों की स्मृतियों की कथाओं से भरे पड़े हैं। कोई सचोट प्रसंग आने पर एक आत्मा विशेष, अपने एक या अनेक पूर्व जन्मों के जीवन को अपने मनोलोक में साक्षात् करके, उनकी समस्त घटनाओं और अनुभूतियों को जी लेती हैं। इन सब चीजों से यह प्रमाणित होता है कि हमारी मानसिक चेतना और अन्तश्चेतना में त्रिलोक और त्रिकाल की सारी जीवन-लीलाएँ सूक्ष्म रूप में समाहित और अक्षुण्ण रहती हैं और किसी प्रासंगिक तीव्र
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