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खिड़कों पर दिखाई पड़ने वाले मीनियेचर महावीर ये हैं । ये तो वे महावीर हैं, जो मेरी सृजनात्मक ऊर्जा के उन्मेष में, मेरी रक्त धमनियों में आपोआप, उत्तरोत्तर खुलते और उजलते चले गये हैं। मानो कि मैं केवल क़लम चलाता रह गया हूँ, और भगवान स्वयम् ही मेरी क़लम की नोक से कागज़ पर उतरते चले आये हैं । अनेक बार आधी रातों में महाकाल के विराट् शून्य में एक क ताकता रह गया हूँ, और मेरी दृष्टि के फलक पर वे प्रभु अन्तरिक्ष में से ज्वलन्त उत्कीर्ण होते चले आये हैं। अपनी इस सृजनानुभूति को इससे अधिक, शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता । निरन्तर यह प्रतीति दृढ़तर हुई है, कि स्वयम् श्री भगवान के अनुग्रह बिना कोई मानुष कवि या रचनाकार उनकी यथार्थं जीवनलीला का गान नहीं कर सकता; क्योंकि अंशत: और एक खास अर्थ में उन प्रभु के जीवन में सहभागी हुए बिना, उनके समग्र के साथ एकतान हुए बिना, अपनी रक्तवाहिनियों में पल-पल उस परमाग्नि को धारण किये बिना, कला में उनको जीवन्त मूर्ति नहीं उभारी जा सकती । इसी से कहना चाहता हूँ कि यह कृति मेरा कर्तृत्व नहीं, मेरे माध्यम से स्वयम् उन भगवान का ही स्वैच्छिक प्रकटीकरण है । इसमें जहाँ भी सीमाएँ, त्रुटियाँ या कमियाँ हैं, वे मेरे माध्यम की अल्पता का परिणाम ही कही जा सकती हैं। वर्ना तो महावीर अपने को मेरी अन्तर्दृष्टि के समक्ष आरपार और अशेष खोलते चले गये हैं । इतने भावों, मंगिमाओं, रूपों और आयामों के साथ वे मुसलसल मेरे भीतर अनावृत (अनफ़ोल्ड) होते चले गये, कि उन अनन्त पुरुष के वैभव और विभा को समेटना, मेरे सान्त अस्तित्व के लिए एक भारी कसोटी सिद्ध हुआ है ।
साम्प्रदायिक जैन अपने शास्त्रों की सीमित भाषा में वर्णित, किसी जैन महावीर को मेरी इस कृति में खोजेंगे, तो शायद उन्हें निराश होना पड़ेगा । यहाँ तो विशुद्ध विश्व- पुरुष महावीर आलेखित हुए हैं, जो केवल जैनों के नहीं, सब के थे, हैं । जो अपने युग के युगंधर, युगंकर और तीर्थंकर थे । उस युग की पीड़ा और प्रज्ञा जिनमें संयुक्त रूप से व्यक्त हुई थी। अपने काल के एक तीखे प्रश्न और चुनौती के उत्तर में जो महाकाल - पुरुष हमारे बीच मानुष तन घर कर आये थे, वे आदर्श की निरी जड़ीभूत पूजा-मूर्ति नहीं थे । मानवीय रक्त-मांस की समस्त ऊष्मा के साथ वे हमारे बीच, नितान्त हमारे आत्मीय होकर विचरे थे । उनके व्यक्तित्व में मानुष और अतिमानुष तत्व का अद्भुत समायोजन और संयोजन हुआ था । ऐसा न होता तो वे हमारे इतने प्रिय और पूज्य कैसे हो सकते थे ! जैनागमों में महावीर की मानुष मूर्ति सुलभ नहीं है। एक आदर्श और
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