Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 358
________________ का नूतन साक्षात्कार किया । वेदों को महाभाव वाणी के केन्द्र में उन्होंने प्रज्ञान का स्वयम्-प्रकाश सूर्य उगाया। लेकिन उपनिषद् की ब्रह्मविद्या भी दष्टामाव से आगे न जा सकी। कालान्तर में वह ज्ञान भी विकृत होकर स्वेच्छाचारियों के हाथों निष्क्रियता, पलायन और स्वार्थ का औजार बना । अवसर पाकर दबे हुए कर्म-काण्डी ब्राहाणत्व ने फिर सिर उठाया । ब्रह्माविद्या पर फिर छद्म वेद-विद्या हादी हो गयी। उपनिषद् के ब्रह्मज्ञानियों से लगा कर श्रमण पावं तक, भाव, दर्शन, ज्ञान को तपस् द्वारा जीवन के आचारव्यवहार में उतारने की जो एक महान प्रक्रिया घटित हुई थी, वह कुण्ठित हो गई । तब महावीर का उदय एक अनिर्वार विप्लवी शक्ति के रूप में हुआ । दीर्घ और दारुण तपस्या द्वारा उन्होंने दर्शन और ज्ञान को जीवन के प्रतिपल के आचरण की एक शुद्ध क्रिया के रूप में परिणत कर दिखाया । इसी से दर्शन के इतिहासकारों ने उन्हें क्रियावादी कहा है; क्योंकि उन्होंने वस्तु और व्यक्तिमात्र के स्वतंत्र परिणमन का मन्त्र-दर्शन जगत को प्रदान किया था । - ‘मनुष्य स्वयम् ही अपने भाग्य का विधाता है। कर्म करने न करने, उसके बंधन में बंधने न बंधने को वह स्वतंत्र है। वह स्वयं ही अपने आत्म का कर्ता और विधाता है। वह स्वयम् ही अपने सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, जीवन-मृत्यु का निर्णायक और स्वामी है। . . . ____ इससे प्रकट है कि आज का मनुष्य जिस आत्म-स्वातंत्र्य को खोज रहा है, उसकी प्रस्थापना उपनिषद् युग के ऋषि, श्रमण पाव और महाश्रमण महावीर कर चुके थे । इस तरह मूलतः आधुनिक युग-चेतना का सूत्रपात ईसापूर्व को छठवीं सदी में ही हो चुका था। विचार और आचार की एकता ही इस चेतना का मूलाधार था। महावीर के ठीक अनुसरण में ही बुद्ध आये। उनके व्यक्तित्व में में महावीर का ही एक प्रस्तार (प्रोजेक्शन) देख पाता हूँ। वे दोनों उस युग को एक ही क्रिया-शक्ति के दो परस्पर पूरक और अनिवार्य आयाम थे। महावीर को परात्पर परब्राह्मी सत्ता के पूर्ण साक्षात्कार के बिना चैन न पड़ा । बुद्ध जगत के तात्कालिक दुःख से इतने विगलित हुए, कि दुःख के मूल की खोज तक जा कर, स्वयम् दुःख-मुक्त होकर, सर्व के दुःख-मोचन के लिए संसार के समक्ष एक महाकारुणिक परित्राता के रूप में अवतरित हो गये। आत्म-तत्व और विश्व-तत्व, तथा उनके बीच के मौलिक सम्बन्ध के साक्षात्कार तक जाना उन्हें अनिवार्य न लगा। पूर्ण आत्म-दर्शन नहीं, आत्म-विलोपन ही उनके निर्वाण का लक्ष्य हो गया। सो 'अव्याकृत' और 'प्रतीत्य समुत्पाद' का कथन करके उन्होंने विश्व-प्रपंच से उत्पन्न होने वाले सारे प्रश्नों और समस्याओं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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