Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 337
________________ ३२७ बेदी में खड़ा देख रहा हूँ, लवणोदधि के निःसीम जल-प्रसार । उससे परे धातकी-खण्ड द्वीप, फिर कालोदधि समुद्र की छोरान्त रत्न - वेलाएँ, फिर पुष्करार्ध और पुष्करवर द्वीपों की जगतियाँ । आकाश ही जिसमें आकृत हो उठा है, वह मानुषोत्तर पर्वत, जिसके आगे मनुष्यों की गति नहीं । फिर वह पृथ्वी का अन्तिम और अन्तहीन स्वयम्भुरमण समुद्र, उसके प्रकाण्ड मगरमच्छों के पेटालों में विचित्र रत्न- तरंगित ज्योतियों के महल। यह है मध्य लोक का छोर, मत्यों की उस पृथ्वी का अन्तिम किनारा, जहाँ मर्त्य मानव- पुरुषोत्तम जरामृत्यु, ह्रास - विनाश के साथ निरन्तर जूझते हुए अमरत्व - सिद्धि के नित-नव्य सोपान अनावरण कर रहे हैं। स्वर्गों और भोग-भूमियों के अकल्पनीय भौतिक सुख, मृत्युंजयी संघर्ष की इस शाश्वत साधना - भूमि पर निछावर होते हैं । अमर लोकों का देवत्व जहाँ मानवत्व का वरण करने को तरसता है । मनुष्य की भंगुर देह में उतर कर ईश्वरत्व जहाँ अपने परम पुरुषत्व को कसौटी पर चढ़ाता है''। अरे माँ, अप्रमेय विस्तारों में फैले ये असंख्यात द्वीप - समुद्र, कुलाचल, सुमेरु-शिखर, स्वयम्भु - रमण समुद्र के वे अन्तिम जल- वातायन, मेरे अणु-अणु को खींच रहे हैं । उद्वेलित किये दे रहे हैं। तुम्ही कहो माँ, * कैसे रुकूं, इस बिन्दुभर नन्द्यावर्त के खण्डों, कक्षों, वरण्डों, वातायनों में- जो मेरी आँखों पर पर्दे डाले रहते हैं । कैसे .. 'अरे मान, यहीं बैठा सारे लोकान्तरों में तो भ्रमण कर रहा है तू फिर कहीं जाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? ' अब तो सदेह सर्वत्र 'भ्रमण से जी नहीं भरता, वह भटकन है, माँ । इन में रमण करने को मेरे प्राण पल-पल व्याकुल हैं। सुमेरु पर्वत के अनेक परिवेशगत वनों, अरण्यों, तटान्तों, कटिबन्धों में देव-देवांगनाओं को क्रीड़ा करते देख रहा हूँ । पृथिवी के इस उपान्त से आगे देवों की सदेह गति नहीं ।... और लो, सोलहों स्वर्गों के पटल खुलते जा रहे हैं । कल्पवृक्षों की सर्वकामपूरन आलोक - छाया में सारे मनोकाम्य फलों का उपभोग करते देवदेवांगना, इन्द्र-इन्द्राणियाँ । प्रत्येक अगले स्वर्ग में विपुलतर, ऊर्ध्वतर होते उनके रत्नाविल विमानों, सरोवरों, क्रीड़ा-पर्वतों, उद्यानों के अकल्प्य सुखवैभव । क्षण-क्षण अभिनव सौन्दर्य और भोग की लहरों के इस चंचल लोक Jain Educationa International आपा खो जाता है । भोग की प्रगाढ़तर होती महावासना में यहाँ सब कुछ अवमूच्छित, लुप्तप्राय, तन्द्रालीनता में इन्द्र-धनुषी लीला की तरह चल रहा For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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