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जल से भरे सुवर्ण-कुम्भों से मेरा अभिषेक कर रहे हैं। . . 'शची जाने कितनी ही कमनीय बांहों से मेरा अंग-लुंछन् कर रही है। कल्प-लताओं के पुष्प-पराग से मेरे सारे शरीर में अंगराग-प्रसाधन किया गया है। फिर एक अखंड उज्ज्वल ज्योतिर्मय उत्तरीय मेरी देह पर धारण कराया गया। उसके उपरान्त अनादिनिधन चित्र-विचित्र रत्नों के किरीट, कुण्डल, केयूर और समुद्र-तरंगिम मुक्ताफलों की मालाओं से आपाद-मस्तक मेरा शृंगार किया गया है।
___ • • “सारा आकाश एक प्रकाण्ड मृदंग की तरह अन्तहीन नाद से शब्दायमान है। स्वर्गों से नन्द्यावर्त के प्रांगण तक का समस्त अन्तरिक्ष देव-देवांगनाओं, अप्सराओं, यक्षों, गन्धर्वो के उतरते यूथों से छा गया है। जैसे एक निःसीम चित्रपटी दिव्य रंग-प्रभाओं से झलमला उठी है । तरह-तरह के देव-वाद्यों, संगीतों, नृत्यों की झंकारों से दिगन्तों के तट रोमांचित और द्रवित हो उठे हैं।
· · देख रहा हूँ, राजद्वार पर तुमुल वाद्य-संगीतों के बीच एक भव्य पालकी उतर आयी है। यह 'चन्द्रप्रभा' नामा पालकी, मानो करोड़ों चन्द्रमाओं के स्कन्ध में से तराशी गयी है। इसकी शीतल-तरल आभा से सारे लोकाकाश के हृदय में एक गहरी कपूरी शीतलता और शान्ति व्याप गई है।
__ . . 'शकेन्द्र और शची मुझे बड़े सम्भ्रम के साथ हाथ पकड़ कर उस पालकी की ओर ले गये। शची ने अवलम्ब के लिए अपनी अपरूप कमनीय कोमल बाहु पसार दी। उसे पकड़ कर मैं पालकी में यों आरूढ हो गया, जैसे अपने चरम विलासकक्ष के शयन पर आरोहण किया हो।
भासित हुआ कि काल-चक्र में विजया नामक मुहुर्त-क्षण प्रकट हुआ है। मेरे पद-नख पर उत्तरा और फाल्गुनी नक्षत्रों की संयुति हुई है। पालकी में मेरे पीताभ गरुड़-रत्न के सिंहासन का आलोक उदीयमान सूर्य के गोलक की तरह भास्वर हो उठा है। पूर्वाभिमुख आसीन मैंने देखा, कि ठीक सामने पूर्व दिशा में एक पुरुषाकार छाया दूर तक फैलती चली गयी है।
शिविका में दीखा : मेरी दायीं ओर एक कुल-महत्तरिका वृद्धा हंसोज्ज्वल वस्त्र लिये बैठी है। मेरी दायीं ओर धाय-माता विपुल सामग्रियों का सुवर्ण थाल लिये बैठी है। पीछे एक परमा सुन्दरी युवती सोलहों शृंगार किये मुझ पर सुवर्णदण्ड का हीरक-श्वेत छत्र छाये हुए है। ईशान कोण में खड़ी एक पुण्डरीक-सी ईषत् नमिता बाला मणिमय विजन डुला रही है। पादप्रान्त में कई वार-वनिताएं नृत्य-भंगों में निवेदित होती हुई, कई-कई ग्रंथियों-सी एक साथ खुल रही हैं।
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