Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 351
________________ ३४१ मानवों और देवों की अन्तहीन जयकारों के बीच, आकाश में तोरणाकार उड़ते सहस्रों देव-देवांगना फूलों की राशियां बरसाते दिखायी पड़े। ___ जब तुमुल जय-निनाद के साथ, परिजनों और प्रजाजनों के कन्धों पर पालकी उठी, तो लोक के सारे पटल रोमांचन से कम्पायमान होते अनुभव हुए। कुछ ही दूर जाने पर शत-शत इन्द्रों और माहेन्द्रों ने चारों ओर से आ कर पालकी अपने कन्धों पर ले ली। कुण्डपुर के राजमार्ग में अनवरत बरसते फूलों के बीच से, दृष्टि के पार होती विशाल शोभा यात्रा चल रही है। अन्तरिक्ष के अधर में शत-सहस्र अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं। उनके नर्तित अंगांगों में से स्वर्गों के कितने ही क्रीड़ाकुल उद्यान और केलि-तरंगित सरोवर आविर्मान और लयमान होते दीख रहे हैं। बेशुमार फूल-पल्लवों, बन्दनवारों, रत्न-तोरणों में से यात्रा गुज़र रही है। दूरियों में देख रहा हूँ : अलंकृत हाथियों की कई-कई सरणियाँ चल रही हैं। हेषारव करते श्वेत अश्वों के यूथ गतिमान हैं। वैडूर्य-शिला का एक विशाल सिंहासन, मणि-कुट्टिम पादुकाओं से दीप्त, कहीं ऊँचाई पर आलोकित है। उसे घेरे अनगिनत रथ अपने रत्न-शिखरों से आकाश को चित्रित करते चल रहे हैं। देवों, विद्याधरों, राजाओं की चतुरंग सेनाओं का ओर छोर नहीं । ठीक पालकी पर, उड्डीयमान मुद्राओं में झुक-झूम कर नृत्य करती अप्सराओं ने चारों ओर रूपलावण्य का एक वितान-सा छा दिया है। · · ·और मेरे भीतर गूंज रहा है : 'नेति-नेति · · 'नेति-नेति ! : यह भी नहीं · · · यह भी नहीं ! : यहाँ अन्त नहीं · · 'यहाँ अन्त नहीं · · · !' और इस सारे पार्थिव और दिव्य ऐश्वर्य के लोकान्त-व्यापी परिच्छद से निष्क्रान्त हो, अपने को एक अगाध शान्ति के सुरभित समुद्र पर चलते हुए देख रहा हूँ। पूरे कोल्लाग सन्निवेश को पार कर, धीर गति से चलती हुई यह शोभा यात्रा जब 'ज्ञातृ-खण्ड उद्यान' में पहुँची, उस समय हेमन्त के नमते अपराह्न की कोमल धूप, वन-शिखरों पर से सरकती दिखायी पड़ी। शिविका जहाँ उतारी गई, वहीं सामने सघन हरित मर्कत-छाया से आलोकित एक विशाल अशोक वृक्ष प्रणत मुद्रा में स्वागत करता दिखायी पड़ा। उसके तलदेश में स्थित एक ऊँची विपुलाकार सूर्यकान्त शिला पर इन्द्राणियों ने चंदन, केशर, कुंकुम और मणि-चूर्णों से स्वस्तिक और आल्पनाएँ रचीं। . . . · · हठात् सहस्रों देव-किंकरों के हाथों में थमे दण्डों की ताड़ना से इन्द्रों के करोड़ों दुन्दुभि बाजे आकाश-व्यापी हो कर प्रचण्ड घोष करने लगे। नाना समवेत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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