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महाभिनिष्क्रमण
[मार्गशीर्ष कृष्णा नवमी ]
हेमन्ती सन्ध्या के इस कोहरिल तट में विचित्र फूल उभर रहे हैं। एक अपार्थिव सौरभ चेतना में व्याप गई है : पर इससे अधिक सुपरिचित सुगन्ध का अनुभव तो पहले कभी हुआ नहीं। · · वे सारे नाना रंगी फूल जाने कब विसर्जित हो कर, एक जामुनी सरोवर की लहरों में परिणत हो गये। · ·और सहसा ही यह क्या देख रहा हूँ कि वह सरोवर फैल कर 'अरुण समुद्र' में व्याप गया है। और उसमें से गोलाकार समुद्र-राशि की तरह प्रगाढ़ अन्धकार का एक विराट् तमःस्कन्ध उठता हुआ सारे लोक पर छा गया है। अपने पादमूल में असंख्यात् योजनों में विस्तृत यह तमोराशि, क्रमशः संख्यात् योजनों में अपसारित होती हुई ब्रह्मयुगल के अरिष्ट-इन्द्रक विमान के तल में अवस्थित हो गई है। उसकी अगणित अन्धकार-पॅक्तियां ऊपर की ओर उठ कर अरिष्ट विमान में चारों ओर फैल गई हैं। फिर वे चारों दिशाओं में विभाजित हो कर, मर्त्यलोक के अन्त तक व्याप गई हैं। उन अन्धकार पंक्तियों के अन्तरालों में देख रहा हूँ-अग्न्याभ, सूर्याभ, चन्द्राभ, सत्याभ, क्षेमंकर आदि ब्रह्म-स्वर्ग के देवों के तैरते हुए जाने कितने द्युतिमान विमान। .. ___... और उस सागराकार गोल तमःस्कन्ध के चूड़ान्त पर लौकान्तिक देवों के कितने ही पंक्ति-बद्ध रत्नप्रभ वातायन उभर आये हैं। देवों के बीच देवर्षि कहे जाते हैं ये देव । स्वर्गों के सारे भोगों से घिरे रह कर भी ये स्वभाव से सहज ही वीतराग और योगी हैं। विषय और विषयी के भेद से परे इनकी चेतना एक निविषय सुख से सदा मिल रहती है। इन्द्र-इन्द्राणियाँ तक इनकी पूजा करते हैं। उन चूड़ान्तिक वातायनों पर उन्हें क्रीड़ा भाव से लूमते देख रहा हूँ। - सहसा ही वहाँ से कई मणिप्रभ विमान उड़ कर नन्द्यावर्त की ओर आते दीखे । • •
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