Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 346
________________ . हथेली पर रक्खा हुआ एक ऐसा सहस्र-पहलू हीरा, जिसमें त्रिलोक और त्रिकाल के तमाम परिणमन झलक रहे होंगे ! तब दुःख, मृत्यु, विनाश, शोक, वियोग के अन्धकारों से आच्छन्न लोक मेरे हृत्कमल में सहज अनुभूत और आश्वस्त होगा । उसे प्राप्त करने को, उसमें व्यापने को, चौरासी लाख योनियों में मुझे फिर भटकना नहीं होगा। भ्रमण तो अनन्त बार किया इन सारी अन्ध योनियों में । पर क्या फिर भी उन्हें जान सका, अपने को जान सका, इस लोक को जान सका ?बाहरी भ्रमण द्वारा नहीं, भीतरी आत्म-रमण द्वारा ही इसे सम्पूर्ण जाना और. स्वायत्त किया जा सकता है । तभी इसमें निर्बाध रमण कर, इसके अणु-अणु में आत्मज्ञान का चक्रवर्तित्व स्थापित किया जा सकता है । 'और वह चिन्तामणि हीरा ले कर, त्रिलोक और त्रिकाल का चक्रवर्ती, विश्वंभरा माँ की गोद में नहीं लौटेगा, तो कहाँ जायेगा ? वहीं बिछेगा उसके चक्रवर्तित्व का सिंहासन !' की मुँदी आँखों से आनन्द के अजस्र आँसू बह रहे हैं । और मैं उनके अन्तर्चक्षु बन कर उनके इस अनहोने बेटे को निर्निमेष निहार रहा हूँ । वातावरण समाधि के अज्ञात फूलों की सौरभ से आप्लावित है । ३३६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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