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'. . मैं बहत पीछे छूट गई, मान ! मां से तू बहुत आगे जा चुका। · · 'जाने कब का? फिर भी क्यों रह-रह कर भरम में पड़ जाती हूँ। जिसका बछड़ा सदा के लिए खो गया है, उस गाय-सी रम्भाती, बिलखती मैं बावली बेकार वीरानों में दौड़ी फिर रही हूँ. . .!'
मां अपने आँसू न रोक सकीं। उन्हें पोंछने का अधिकार मैं खो चुका हूँ, जाने कब का। मोहरात्रि को पुचकार कर अब और सुलाये रखना मेरे वश का नहीं। • • •
'. : 'जाओ, जहाँ तुम्हारा जी चाहे जाओ, मान! तुम्हें रोक कर रखने वाली मैं कौन होती हूँ। सारे आसमान को अपने आँचल की कोर में गांठ दे कर बांध लेने की भ्रांति में पड़ी हूँ मैं। · · · ऐसी मूढ़ स्त्री, तुम्हारी माँ कैसे हो सकती
'तन की मां तो हो ही, अब मेरे मन, चेतना, आत्मा की माँ भी बन जाओ न । तुम्हारी ही गोद में द्विजन्म पाना चाहता हूँ, माँ, सत्य का ज्योतिर्मय जन्म · ·!'
'तो उसके लिए मुझे त्याग कर मौत की अंधेरी खन्दकों में कूदोगे तुम ? मेरी मति-बुद्धि से बाहर है यह सब।' । ____ 'वह अँधेरी खन्दक भी तो तुम्हारे ही गर्भ में है, मां। फिर लौट कर उसी में कूदूंगा, और उसकी मोहान्ध कारा को सचेतन, सज्ञान तोड़ कर, अखण्ड, अनन्त गुना अधिक, समूचा तुम्हारा हो कर, तुम्हारी गोद के सिंहासन पर प्रकट हो उलूंगा.. !'
मां ने शब्द न सुने : केवल भावित हो आईं; बोध से उजल आया उनका मुख। और अखण्ड माँ को मैंने जैसे साक्षात् किया।
'आवागमन से परे की, अपनी और मेरी स्थिति को मेरी आँखों में बूझो, माँ ! तब पाओगी कि जाना-आना, यह निरी शब्द-माया है । तब मेरी जाती हुई बिछोही पीठ नहीं देखोगी, मेरा सन्मुख आता मुख ही देखोगी। काश सत्ता का वह आयाम तुम्हें प्रत्यक्ष दिखा सकता! लेकिन शब्द के राज्य की सीमा आ गई · · । अब बोलना निःसार लगता है। देख सको तो देखो, मैं तुम्हारे सामने हूँ समूचा . .
सदा।'
'.. 'तू तो कहता है, मोक्ष में खो नहीं जायेगा। लौट कर आयेगा मेरे पास। क्या लायेगा मेरे लिए? ..."
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