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'कितनी देर हो गई तुझे, बोलते-बोलते । चुप हो जा लालू - मेरे लाल..!'
· · ·और सहसा ही अपने बालों और गालों पर माँ का हाथ फिरता अनुभव किया। आँखें खुल गईं। · · यह क्या देख रहा हूँ। माँ की गोद में उत्संगित हूँ। बरसों से ऐसा नहीं हुआ था। उस मोहोष्मा को सह न पाया, और उठने को हुआ कि माँ ने दोनों बाँहों से मुझे समचा आवरित कर लिया। · · लगा, जैसे एक तीखा प्रश्न माँ ने बिन वोले ही, मेरी नस-नस में झनझना दिया · ·! ___.. - ‘सच ही तो है तुम्हारा अनुरोध माँ, अनन्त केवल सिद्धात्मा ही नहीं, यह सारा लोक, इसके सारे बद्धात्मा जीव भी अनन्त हैं। सत्ता मात्र अपने द्रव्यत्व में अनन्त और अविनाशी है। तीनों लोकों का ढाँचा, उसके कई पटलों में स्थित पर्वत, नदियाँ, समद्र, कई भवन-मन्दिर जैसे पुद्गल-समच्चय तक शाश्वत अनादिनिधन हैं। तब सिद्धात्मा की अनन्तता, और अविनाशीकता की क्या विशेषता? वह अनन्त जब तक अपनी सारी अनन्त गुणवत्ताओं के साथ, सान्त में व्यक्त न हो, अभी और यहाँ जीवन की लीला में संक्रान्त न हो, उसकी क्या सार्थकता? अपार संत्रास, यातना, मृत्यु झेलते असंख्य संसारी जीवों से मुंह मोड़ कर, जो अपने ही निर्वाण-सुख में बन्द हो गया है, उस सिद्धत्व को लेकर मैं क्या करूँगा! हो सके तो उस परात्पर सिद्धत्व को, लोक की रचना में सिद्ध और संचरित देखना चाहता
___: 'मेरी बात तो तू मानने से रहा। जब से मैं यही तो कह रही हूँ. . । पर तू सुने तब न । चिर दिन का हठीला जो है । पर आया न वहीं, जो मैं कह रही थी। देख मैं हूँ न, मुझ में ला अपनी मुक्ति । इस कक्ष में, इस महल में, माँ की गोद में लेटे-लेटे सभी कुछ तो देख लिया तेने · · · ! फिर अब कहाँ जाना है रे?'
'. . 'नहीं माँ, मोक्ष से भी आगे की सिद्धि जिसे लाना है, वह यहाँ कैसे रुक सकता है। त्रिलोक और त्रिकाल के समस्त जीवों की सृष्टि में, उनके जीवन में, मुक्ति के शाश्वत संवादी सुख को जो संचरित देखना चाहता है, उसे उन तमाम असंख्यात जीवों की चेतना में उतर कर, उनके साथ तद्रूप तदाकार होना होगा। उसके लिये उसे विराट् प्रकृति के असीम जीव-राज्य में विचरण करना होगा। और जीवों के और अपने बीच जो अनन्तकाल के कर्मावरण और मनोग्रंथियाँ पड़ी हैं, उन्हें भेद कर, प्रत्येक जीवाणु के साथ आत्मसात् हो जाना पड़ेगा। माँ की मोहोष्म गोद, और नंद्यावर्त की सुख-शैया में वह सम्भव नहीं। प्रकृति में व्याप्त युग-युगों के हिंसा-प्रतिहिंसा और कर्मों के दुश्चक्रों के प्रति आत्मोत्सर्ग कर देना
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