Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 334
________________ ३२४ सिरहाने है तुम्हारा नाभि-कमल । उसमें उगा है एक विराट् जम्बू-वृक्ष । जिसके शाखा-जाल और पल्लव-वितानों तले सारी मर्त्य-पृथ्वी आश्रय खोज रही है । यह मध्य लोक है : मर्त्य-मानवों की लीला-भूमि । तिर्यंच पशु प्राणियों, वनस्पतियों, जाने कितने पर्वत-सागरों, नदियों, अरण्यानियों से आकीर्ण। लोक-मध्य में यह जम्बूद्वीप है : इसके ठीक केन्द्र के जम्बू-क्षेत्र में तुम्हारे नाभिज इस जम्बू-वृक्ष के शिखर पर बैठा मैं, अनन्त दूरियों का सिंहावलोकन कर रहा हूँ। असंख्यात द्वीपसमुद्रों से आवेष्टित यह जम्बूद्वीप अद्भुत है। यह लवण-समुद्र से स्पर्शित है । वज्रमयी तट-वेदिका से घिरा है। इसके केन्द्र में महामेरु खड़ा है। एक लाख योजन है इसका विस्तार । .. . .. और देख रहा हूँ, इस विस्तार में, विचित्र रंगी विभाओं से भास्वर छह कुलाचल पर्वत । प्रकृति के सारे परिवर्तनों और प्रलयों में ये अटल रहे हैं । हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रूक्मी और शिखरी : इन छह कुलाचलों के स्वर्णाभ शृंगों पर डग भरता चारों और निहार रहा हूँ। इन अनादिकालीन पर्वतों ने तमाम जम्बू-द्वीप को सात क्षेत्रों में विभाजित कर दिया है : भरत, हैमवत्, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत् और ऐरावत। उत्तरान्त में ऐरावत की अन्तिम केशरी ध्वजा उड़ते देख रहा हूँ। दक्षिणान्त में भरत क्षेत्र की वह नीली पताका फहरा रही है।...भरत क्षेत्र के ठीक मध्य भाग में विजयाध पर्वत पूर्व से पश्चिम समुद्र तक फैला है। दोनों महा-समुद्र जैसे उसके फैले हाथों की अँजुलियों में उछल रहे हैं। इस विजयाध के रूपाभ प्रसारों में विद्याधरों की हाजारों सुरम्य रत्न-दीपित नगरियाँ फैली पड़ी हैं। इसके सिद्धायतन, दक्षिणार्धक, खण्ड-प्रपात, पूर्णभद्र, विजयार्ध-कुमार, मणिभद्र, तमिस्र-गुहक, उत्तरार्ध, वैश्रवण-- इन नौ कूटों को अपनी पगतलियों में कसकते अनुभव कर रहा हूँ। "सिद्धायतन कूट पर पूर्व दिशा में सिद्धकूट नामक एक उज्ज्वल जिन मन्दिर चमक रहा है। अन्तरिक्ष में तैरते एक विशाल हीरे की तरह द्युतिमान यह मन्दिर अविनाशी है। क्षणभंगुर पुद्गल के परमाणुओं तक ने यहाँ शाश्वती में पुंजीभूत हो कर, पदार्थ की अन्तिम अनश्वरता का परिचय मूर्तिमान किया है। एक अद्भुत आश्वासन अनुभव कर रहा हूँ, माँ ! . . . '. 'तो साक्षी पा गई हूँ, मान, कि सचमुच ही मेरी त्रिवली का यह त्रिकोण, यह मेरा नाभि-कमल अविनाशी है। और मेरा द्रष्टा बेटा सदा इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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