Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 333
________________ यातनाएँ । 'देख रहा हूँ माँ, एक नारकी जीव, दूसरे नारकी जीव के लिए उबलती कढ़ाई बन गया है । जन्मान्तरों में अनेक बार भोगी प्रिया के अंग-प्रत्यंग, सहस्रों शूलों के आलिंगन - कषाघातों से जीव की मोह-मूर्च्छा को भेद रहे हैं। अपनी हीमों का कषाय- क्लिष्ट रक्त यहाँ की वैतरणी के रूप में बह आया है । उस पर झुक आये हैं, सेमर वृक्षों के अभेद्य तमसा वन । उनके पत्ते और डालें भालों और असिधारों से वेधक हैं । इस वैतरणी में एक-दूसरे पर लुढ़कते, खदबदाते, सीझते जीव ऊपर छाये असि - फलों से निरन्तर छिदते - भिदते अपने आप ही अपने कपटकषायों के आखेट हो रहे हैं । माँ, नहीं नहीं नहीं ठहर सकता अब मैं तुम्हारे आँचल की सुखद छाँव में • इस महल के ऐश्वर्य -कक्षों में । अनादिअनन्त काल में, अज्ञानवश जो ये असंख्यात जीव ऐसे दारुण, दुःसह कष्टों में डूबे हैं, इनकी मूर्छान्ध आत्माओं में से मुझे यात्रा करनी होगी : उनके साथ तद्रूप हो कर, उन सब की समीकृत यातना को एक बारगी ही, अपने भीतर भोगना और सम्वेदित करना होगा 1 ।' 'यह कैसा विचित्र अनुभव है, मान ! • मैं अपने पगतलों में ही तेरी यह सारी निगोदिया जीव - राशि इस क्षण जो रही हूँ ! 'मेरे जघनों, जानुओं, जंघाओं में ये सारे नरक के पटल अपने तमाम विवरों के साथ सुलग उठे हैं। अपनी माँ की गोद में लेट जाओ बेटा, और सारे नरकों को एक साथ भोगो, पर मेरे अंगों से जुड़े रहो, फिर जो चाहो करो ।' ३२३ ...... 'देख रहा हूँ माँ, नसैनी की सब से ऊपरी सीढ़ी पर आ पहुँचा हूँ । यहाँ पृथ्वी विशीर्ण हो गई है । अधर अन्तरिक्ष में एक गहरे हरे पन्ने की चट्टान पर पैर धरे खड़ा हूँ। और ऊपर आकाश में भवन - वासी और व्यंतर देवों के विपुल सुखभोगों से भरे अनेक रंगी प्रभाओं वाले विमान तैर रहे हैं। पर बड़े अभागे हैं ये देव; भटकी हुई है इनकी चेतना । अपरूप सुन्दरी देवांगनाओं और सुख - शैयाओं को छोड़, ये जाने किन अँधेरों में अपनी ही कषायों की प्रेत छायाओं से संघर्ष कर रहे हैं । पंकिल ख़न्दकों, निर्जन वीरानों, खण्डहरों, सूनकारों में ये आत्म-पीड़ित अबूझ टक्करें खाते, किस सुख को खोज रहे हैं ? काश, मैं इन्हें आपे में ला सकता : इन्हें इनकी देवांगनाओं की मिलन- शैयाओं में लौटा सकता। लौटना होगा इन्हें, अपने वैभव में : उसके बिना मुझे चैन नहीं । नहीं मैं नहीं ठहर सकता इस उत्तुंग महल के वातायनों पर ! 'नहीं ".. 'देखो माँ, कूद पड़ा हूँ अपने इस नवम् खण्ड के उत्तरी वातायन से ।. और आ पड़ा हूँ जाने कहाँ। पर यहाँ मैं ठीक तुम्हारी त्रिवेली पर लेटा हूँ । मेरे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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