________________
३२१
से अदृश्य होने पर भी, ये जीव अपने स्पर्श की छटपटाहट से मेरे तन के अणु-अणु में भिदे जा रहे हैं : ये यहाँ से निकल कर, मुझ में शरण पाना चाहते हैं। पर इनके और मेरे बीच जाने कैसे अवरोध की टकराहट है। एक अन्धकार की शिला पड़ी
- 'देखते-देखते, माँ, जीव के स्पर्श की वह ऊष्मा विदीर्ण हो गई है। · · ·उस लोकाकार पुरुष के चहुँ ओर अनन्त शून्य का विस्तार फैला है। उसमें कोई अस्तित्व नहीं : निपट नग्न नास्तित्व का अन्तहीन प्रसार है। इस शून्य में खोया जा रहा हूँ। नास्ति हुआ जा रहा हूँ। अपनी इयत्ता, अपना स्वभाव हाथ से निकला जा रहा है। मैं नहीं रह गया हूँ : केवल अपरिभाषेय शून्य का स्वतः स्तम्भित समुद्र रह गया है। इस अपदार्थता में बोध समाप्त हो गया है। मेरी इस वेदना को समझ सकोगी, माँ ? . . . एक विराट् खालीपन में निरस्तित्व हो जाने की यह पीड़ा कहने में नहीं आती। - "हूँ कि नहीं हूँ: कौन बताये मुझे - 'माँ-माँ-माँ. . . !
'.. 'लौ, एकाएक किसी अस्पृश्य तट से टकरा गया हूँ। : - लौटने की अनुभूति हो रही है। अस्ति का यह पहला किनारा है। · · · यह तनु वातवलय का प्रदेश है। अनेक परस्पर मिश्रित रंगों का यह एक वायवीय प्रस्तार है। यह अपने ही अन्दर समाता हुआ, जहाँ उत्तीर्ण हुआ है : वहाँ देख रहा हूँ घन-वातवलय : मुंगिया रंग का एक दुस्तार वलयन । · · ·और अपने ही में लुढ़कता यह कहीं जा गिरता है, और छपाके के साथ खुल पड़ा है घनोदधि-वातवलय : एक पीताभ तमिस्रा का साम्राज्य । ऐसा लगता है, घनघोर शीत के प्रदेश से किसी ऊष्मा का प्रान्तर सहसा ही छू गया हूँ। इन तीनों वातवलयों को एक चित्र की तरह स्पष्ट सामने देख रहा हूँ; ये सब दण्डाकार लम्बे हैं, घनीभूत हैं, चहुँ ओर स्थित, चंचलाकृति, परस्पर संक्रान्त, ये आमूल-चूल लोक को आवेष्टित किये हुए हैं। . . . '
'मेरा कौतूहल बढ़ रहा है, पर तू हाथ से निकला जा रहा है, लालू । देख, ऊपर खड़ी मैं तुझे खींच रही हूँ। मेरे पास आजा न...।'
'तुम ठीक खड़ी हो माँ, और तुम्हारे खिंचाव से मैं बँधा हूँ। · · मेरे पैर जैसे अस्ति की अचल चट्टान से बँधे हैं। तुम निश्चिन्त रहो। मैं यात्रित होकर भी यात्रित नहीं, स्थित हूँ : पर दृश्य के इस अनावरण से निस्तार नहीं । . . . अरे कहाँ गया वह घनोदधि वातवलय ! एक महातमिस्रा से मैं समूचा आवृत हो गया हूँ। · · ·ओ, यह महातमःप्रभा नामा सातवें नरक की पृथ्वी है। यहाँ यातना अनुभूति को अतिक्रान्त कर गई है। एक पिण्डीकृत अन्धकार-राशि : अनुभूति
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org