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पूर्ण सम्बादिता की खोज में
माँ और पिता मुझे समझ रहे हैं। यह कम बात नहीं। बात करता हूँ, तो उनकी चेतना में एक गहरा समाधान व्याप जाता है। पर उनके मन-प्राण मोह से कातर और विह्वल है। आसन्न विछोह की कल्पना से वे भीतर ही भीतर थर्रा उठे हैं। वे अच्छी तरह जान गये हैं, कि अब मैं यहाँ रुक नहीं सकता। किसी भी क्षण जा सकता हूँ। उनकी आँखों में एक ही चित्र भटके दे रहा है । · · एक दिन अचानक ऐसा होगा कि मैं नन्द्यावर्त की सीढ़ियाँ उतर जाऊँगा। सदा के लिए इस राजद्वार को पार कर जाऊँगा। फिर कभी इस जीवन में लौट कर, इस महल में नहीं आऊँगा। · · सूना हो जायेगा सदा को यह मेरा कक्ष ! मेरी अनुपस्थिति का सूनापन, इस महल के एक-एक खण्ड, उद्यान, झाड़-गाँछ, सरोवर, पत्ती-पत्ती, कण-कण में व्याप जायेगा। अपने पीछे के इस विछोह के क्षत और उदासी का ख्याल मुझे भी कभी-कभी आता है। पर मेरी अविछोही, अखण्ड चेतना में वह ठहर नहीं पाता : धारा में बह कर जाने कहाँ खो जाता है। लेकिन परिजनों की विरह-व्यथा को पूरी तीव्रता से अनुभव करता हूँ, और उनके साथ तद्रूप हो कर, कभी-कभी हिल उठता हूँ। अपनी तो कोई व्यथा मुझे नहीं व्यापती, पर स्वजनों की व्यथा से बच नहीं पाता हूँ।
· · तिस पर समाचार आया है कि वैशाली में गृह-युद्ध फूट पड़ने की सम्भावना है। देवी आम्रपाली ने अपने सप्त-भूमिक प्रासाद के द्वार बन्द कर लिये हैं। सारी नगरी अवसन्न, उद्वेलित और संकटापन्न है। मुझ से गण-परिषद् को कोई आशा नहीं : क्योंकि मेरा मार्ग अपनाने का साहस उनमें नहीं। फिर, पार्षदों में भी परस्पर तीन मतभेद की खाई खुल पड़ी है। एक ओर मेरे अभिनिष्क्रिमण के सदमे से माँ और पिता काँपे हुए हैं। दूसरी ओर उनके अस्तित्व के आधारों पर ही सत्यानाश का काल भैरव मँडरा रहा है। घर के बेटे ने ही घर को तोड़-फोड़ दिया :
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