Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 314
________________ ३०४ 'त्रिकाल - ज्ञानी तीर्थंकर, 'त्रिकाल असम्भव' जैसी पक्की और अन्तिम भाषा बोल ही कैसे सकता है ? अनन्त ज्ञानी कभी अन्तिम शब्द नहीं कहता । सत्ता जब स्वभाव से ही अनैकान्तिक और अनन्त है, तो उसके विषय में अन्तिम शब्द कैसे कहा जा सकता है । कथन मात्र सापेक्ष ही हो सकता है, निरपेक्ष और अन्तिम होकर तो वह सत्याभास हो ही जाता है । महासत्ता अद्वैत है, अवान्तर सत्ता द्वैत है | अद्वैत और द्वैत दोनों अपनी जगह सत्य हैं । उनकी पारस्परिक लीला का रहस्य इतना गहन, अभेद्य और अकथ्य है, कि कथन द्वारा उसका अन्तिम निर्णय मात्र मिथ्या दर्शन ही हो सकता है ।' 'तब तो तीर्थकरों का सारा भाषाबद्ध तत्वज्ञान तुम्हारे लेखे मिथ्यादर्शन है ?' 'कोई भी दोटूक भाषा में बद्ध तत्वज्ञान, एक हद के बाद मिथ्या दर्शन हो ही जाता है । अरिहन्तों ने सप्तभंगी नय से ही पदार्थ के कथन को सत्य - विहित माना है । और अन्ततः उन्होंने सातवें भंग में पदार्थ को अनिर्वच कह ही दिया । यानी के तत्व अनन्ततः कथनातीत है । वस्तु अन्ततः वचनातीत है । उसे कथन से परे har अनुभव किया जा सकता है, जिया जा सकता है । मैं सत्य को केवल जीना चाहता हूँ । उसकी अनैकान्तिक और बहुआयामी प्रभा को अपने व्यक्तित्व और आचरण में प्रकाशित किया चाहता हूँ । तब उसका जो यथार्थ स्वरूप है, वह आपो-आप प्रकट हो ही जायेगा । मैं कथन द्वारा उसके निर्णय के झमेले में क्यों पडूं ! कथन को लेकर जो चले, वे सब वादी हुए और सब वादियों में प्रतिवादियों की एक पूरी श्रृंखला खड़ी कर दी । उससे सम्यक् - दर्शन नहीं, मिथ्या- दर्शन ही प्रतिफलित हुआ । उससे कल्याण नहीं, अकल्याण का ही विस्फोट हुआ । धर्म और सत्य के नाम पर, उससे अधर्म्य और असत्य भेदों और सम्प्रदायों की सृष्टि हुई । तीर्थंकर वादी नहीं, सृष्टि और मुक्ति के मौन सम्वादी और स्रष्टा होते हैं। इसी से उनकी वाणी निरक्षरी और अनाहत दिव्य ध्वनि होती है; वह शाब्दिक विधान और उपदेश नहीं होता । वे कुछ कहते नहीं, करते नहीं, अपनी कैवल्य-ज्योति के विस्फोट से, सृष्टि में कैवल प्रतिफलित होते चले जाते हैं । वे मूर्तिमान सत्य और कल्याण होते हैं । उनकी कैवल्य- क्रान्ति एक अनहदनाद द्वारा, सृष्टि में चुपचाप व्यापती और व्यक्त होती चली जाती है ।' 'अद्भुत और अपूर्व प्रतीतिकारक है, तुम्हारी वाणी, बेटा । प्रकट में वह अर्हतों के परम्परागत धर्म-दर्शन की विरोधिनी लग सकती है । पर यथार्थ में वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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