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प्रति-संसार का उद्घाती प्रति-सूर्य
'रो रही हो, वैना ? .. तब तो मेरा जाना और भी ज़रूरी है । प्रकट है कि अब भी मेरी वियोगिनी ही हो, योगिनी नहीं हो सकी। अभी तक सुलभ हूँ न तुम्हें, इसीसे स्व-लभ न हो सका। उसके लिए आवश्यक है कि सुलभ न रहूँ, बल्कि बाहर अभ तक हो जाऊँ ।'
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'जानती हूँ, जाओगे ही। मैं रोकने वाली होती कौन हूँ? मेरा तो कहीं कोई था ही नहीं । तुम ने कहा कि नहीं, तुम हो, और मैं अकेली नहीं हूँ ।क्यों मुझे इस माया में डाला ? तुम्हारा दोष नहीं, भूल मुझी से हुई । तुम्हें पा कर अपनी अकिंचनता को भूल बैठी | मैं चिर अनाथिनी, फिर वही हो गई । मेरा भाग्य ! तुम ठहरे सम्राट ! मुझ दुःखिनी का तुम पर क्या दावा हो सकता है ! '
'मेरा कहीं कोई है, या कोई नहीं है: ये दोनों ही भाव माया हैं, वैना, मिथ्या हैं। आज यदि मेरा कहीं कोई है, तो कल उसे कहीं कोई नहीं होना ही है । कोई एक जब तक अपना रहेगा, और अन्य सब पराये रहेंगे, तो एक दिन यह अपना भी पराया हो कर ही रहेगा। क्योंकि वह कोई एक बेचारा, जो स्वयं पूरा अपना नहीं, तो तुम्हारा कब तक बना रहेगा। स्वयं अपनी और आप हो जाओ, तो किसी एक की अपेक्षा न रहेगी, सब अपने हो जायेंगे। किसी एक की पर्याय विशेष तो विनाशीक है, उससे वियोग अनिवार्य है । अटूट संयोग केवल पर्यायी के साथ सम्भव है : जो अविनाशी है, अविकल एकमेव है । पर्याय विशेष के साथ वह सम्भव नहीं । मोह की इस मरीचिका में कब तक चला जा सकेगा ! उसका अन्त यदि सामने आ गया है, तो खुश होना चाहिये कि नहीं ?"
'मरीचिका यदि टूटी है, तो इस बेसहारगी में, तुम जो एकमेव हो, वह भी आँख से ओझल हो जाओ, तो खड़ी कैसे रहूँगी मैं ?'
'मैं जब नहीं था, तब किसके सहारे खड़ी थी ? पल-पल संकट, अत्याचार, अरक्षा, मौत के बीच जो अचल पग अकेली चल रही थी, वह कौन थी ? - उसे तुम भूल गईं ?"
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