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विप्लव-चक्र का धुरन्धर
.. - एक वर्ष हो गया, वर्षीदान चल रहा है। हमारे सारे खजाने खाली हो गये, और क्या चाहते हो, बेटा?'
'खाली हो कर खत्म हो गये? क्या भरते नहीं जा रहे, तात ?'
'बेशक, खाली होकर फिर भरते ही जा रहे हैं। वर्द्धमान का यह प्रसाद तो उसके जन्म के दिन से ही देख रहा हूँ, कुण्डपुर में !'
'खाली कह कर ही आप चुप हो गये न, बापू ? भरने की बात तो आपने मेरे पूछने पर कही। इसी से पूछना पड़ा?' ___हमारे ख़जाने तो खाली हो ही गये, बेटा। अब जो है, वह तो वर्द्धमान का प्रसाद है। चमत्कार के समक्ष तो चुप और चकित ही रहा जा सकता है न, उसे अपना कैसे कहूँ ?'
'तो सुनें बापू, यह प्रसाद हर घर और हर आत्मा तक पहुँचा देना चाहता हूँ। ताकि जन-जन के भीतर-बाहर के खजाने अखूट हो जायें। यह चमत्कार नहीं बापू, चिन्मय का साक्षात्कार है। वस्तु सामने आ रही है, तो क्या आप उससे आँखें फेरेंगे? प्रत्यक्ष का भी प्रमाण चाहेंगे आप?'
'तुम जन्मे उसी दिन से हमारा तो कुछ रहा नहीं, लालू । यह सारा वैभव तुम्हारा है। इसके स्वामी तुम हो, हम नहीं। जो चाहो इसका कर सकते हो !'
'बहुत कुछ रह गया है, महाराज! और उसका स्वामी मैं नहीं। मेरे स्वामित्व में मेरा कुछ रह नहीं सकता। नन्द्यावर्त और वैशाली पर अभी भी आपके संगीन पहरे हैं। स्वामित्व मेरा होता तो अब तक _ 'बोलो, क्या चाहते हो, आयुष्यमान् !'
'मेरा वश चले, तो मैं नन्द्यावर्त और वैशाली को भी दान कर देना चाहता हूँ.. इस वर्षीदान का समापन केवल यही हो सकता है !'
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