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'वर्द्धमान्, तुम्हारी पहचान फिर हाथ से निकल गयी। तुम आँख से ओझल हुए जा रहे हो! • • .'
कहते-कहते सोमेश्वर मेरे एक हाथ की उद्बोधिनी मुद्रा को, अपने दोनों हाथों में पकड़ कर, भीतर ही भीतर फूट पड़ा। उसकी मुंदी आँखों की बरौनियाँ भीनी हो आईं। ___ और वैनतेयी की आँसू-धुली पारदर्श आँखें पूरी खुल कर, उस अगम्य दूरी में मेरा अनुसरण कर रही थीं, जहाँ वर्तमान के क्षितिज का तटान्त तोड़ कर, मैं आगे बढ़ा जा रहा था। ___.. वैना, अपने कवि को तुम्हारे हाथ सौंपे जा रहा हूँ। उसे ऐसा न लगे कि वह अकेला पीछे छूट गया है। दोनों संयुक्त और युगलित चलोगे, तो उसकी कविता भव्यतर और दिव्यतर होती हुई, महावीर में साकार होती चली जायेगी। वही तो तुम होगी वैनतेयी. . . !'
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