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महार्ध शृंगार किये महारानी त्रिशला देवी-सी चली आ रही हैं। उनके दोनों हाथों में उठे सुवर्ण थाल में, मेरे जन्म-कल्याणक के समय सौधर्म इन्द्र द्वारा लाये दिव्य रत्नों के किरीट-कुण्डल, केयूर, मणिबन्ध, कण्टहार और वस्त्राभूषण जगमगा रहे हैं। उनके अगल-बगल दो सुवेशिनी सुन्दर प्रतिहारियाँ, विविध मंगलसामग्रियों के थाल, मणि-कुम्भ और एक रत्नजटित कोशवाली तलवार लिए चली आ रही हैं।
माँ की चरण-रज ललाट पर चढ़ा कर, मैंने कहा : 'क्या कोई भेंट लेकर जाना होगा वैशाली, माँ ? वहाँ कोई राजा और राज-दरबार भी है क्या ?'
'वह मुझे नहीं पता। मेरा राजा तो मेरे सामने खड़ा है। वह तो राजवेश धारण करेगा ही। ___'सुनता हूँ, वैशाली में तो जन-जन राजा और राजपुत्र है। फिर मैं कोई विशेष राजा बनूं, यह तुम चाहोगी?'
'मेरा बेटा वैशाली का ही नहीं, तीनों लोकों का राजा है । राजराजेश्वर है ! . . .'
कहते-कहते माँ का गला भर आया। उन्होंने चौकियों पर थाल रखवा कर, सेविकाओं को जाने का संकेत दे दिया।
• - विकल्प असम्भव प्रतीत हुआ। आज की यह माँ, केवल मेरी नहीं, भुवनेश्वरी जगदम्बा लगीं। · ·और राज्याभिषेक तथा शृंगार मैंने अपना नहीं, त्रैलोक्येश्वर का होते देखा। उसमें बाधक होना, क्या अहंकार ही न होता? मैं कौन होता हूँ, कि वह स्वीकारूं, या अस्वीकारूँ ! साक्षी और समर्पित हो कर वह नतशिर मैंने झेला। श्रीफल के साथ इक्ष्वाकुओं की परम्परागत महामूल्य तलवार महारानी-माँ के हाथों में उठ कर, समक्ष प्रस्तुत हुई । मैंने सादर उसे दोनों हाथों में ग्रहण किया और अपने मर्मरी सिंहासन पर उसे लिटा दिया। .
'वहाँ नहीं, कटि पर इसे धारण करेगा मेरा केसरी कुमार !'
'नहीं माँ, यह तलवार मेरी शैया ही हो सकती है, मेरा हथियार नहीं। तुम्हारी ढाली ये दो भुजाएँ क्या कम हथियार हैं मेरे लिए ! तलवार पर मैं सो ही सकता हूँ, उसका भार मैं नहीं ढो सकता।'
'क्षत्रिय का वेटा हो कर, खड्ग धारण से इनकार करेगा, मान ? अब तक तेरी हर हठ मैंने मानी, आज तुझे मेरी हठ रखनी होगी !'
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