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'.. 'तुम्हें एक बार नयन भर देखने की साध, चिर दिन से मन में सँजोये थी। पार्थिव में और कुछ देखने की चाह अब नहीं रह गई है। जब सुना कि तुम वैशाली के संथागार में आ रहे हो, तो अब तक जो तुम्हें जाना और माना था, वह एक बिजली ने जैसे कौंध कर भंस दिया। अभिमान हो आया, नहीं - ‘नहीं आऊँगी तुम्हारे सामने । मेरी क्या हस्ती ! तुम वैशाली के देवांशी राजपुत्र : और मैं तुम्हारे गण की एक तुच्छ गणिका! और कोई मुझे कुछ समझे, तुम्हारे सामने हलकी नहीं पडूंगी, और अपनी गहित काया को सामने रख कर, तुम्हें अपमानित होते नहीं देख सकेंगी।
___ . . किन्तु जाने क्या भीतर धक्का दे रहा था। मैं अवश हो गई, तैयार तक हो गई : द्वार पर रथ प्रस्तुत करने का आदेश भी दे दिया। आईने के सामने हो कर एक बार अपने को देखा। चूर-चूर हो गई। अपने रूप की बिजली में जलकर, लज्जा और अनुताप से भस्म की ढेरी हो रही । असह्य लगा, अपना यह त्रिलोकमोहन सौन्दर्य । नहीं, नीलाम पर चढ़े हुए लावण्य से देवता की पूजा नहीं हो सकती। जाऊँगी संथागार में, तो तुम्हारे गणपुत्र मेरे रूप की धूल उड़ायेंगे। तूफान के बवंडर उठेंगे। वैशाली का सूरज उससे ढंक जायेगा। नहीं, यह नहीं होने दूंगी; वैशाली की बेटी हूँ, और चाहूँगी कि उसके सूरज का आवरण न बनू । उसको प्रभा को अपने रूप की रज से मलिन न होने दूं। वैशाली का जनगण खुली आँखों अपने इसे सूर्यपुत्र का दर्शन करे।
'मो अपनी इस निर्माल्य माटी को अपने ही में समेट कर, शैया में औंधी
पड़ रही। ..
संथागार से लौट कर मेरी अभिन्न सहचरी वासवी ने वह सब बताया, जो वहाँ उसने देखा और सुना था। · · · मैंने उसे जाने को कह दिया, और मेरी छाती में जन्मान्तरों के दबे रुदन और विछोह घुमड़ने लगे। · ·इस अभागी छाती को अब किसकी प्रतीक्षा है, जो फट न गई । . . .
___ 'तुमने वैशाली और आम्रपाली को एक कर दिया। तुमने एक गणिका को गणदेवी के आसन पर बैठा दिया। अनर्थ किया तुमने, वर्द्धमान ! मुझ अभागिनी को मशाल की तरह अपने दोनों हाथों में उठाकर तुमने सारे जम्बूद्वीप में आग लगा दी। भेड़ियों के बीच तुमने मुझे सिंह पर आसीन कर दिया। इस सारे जंगल का पशुत्व अब बलवा कर उठेगा। यों ही मैं कम हत्यारी नहीं थी। अब तुम चाहते हो, कि मैं रक्त की नदियों पर चलू ? कैसा ख़तरनाक खेल तुम खेल गये, महावीर ! तुमने मुझे मौत के बीच अरक्षित खड़ी कर दिया है। . . . .
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