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से लौट कर भरी आई थी, मेरी गोद में फूट पड़ी। बोली-'अपना राज रक्खो तुम सब, वर्द्धमान तो चला ही जायेगा। तुम्हारी राह का फन्दा कट गया, अब खुशियाँ मनाओ तुम सब। · · ·और तुम्हारे इस राज में तब मेरे लिए भी ठौर नहीं ! . . 'ठीक है, अपनी राह मैं भी चली ही जाऊँगी ! . . .' -मैंने बहुत समझाया उसे, तुझ से मिल कर बात करे, और समाधान पाये। ॐ हूँ-एक नहीं मानी उसने । . . 'नहीं, मुझे नहीं मिलना है किसी से। वर्द्धमान को मेरी नहीं पड़ी, तो मुझे भी उसकी पड़ी नहीं है ।' तू आया, तो महल-उद्यान सारे में खोज आई, जाने कहाँ खो गई है चन्दन.!' ..
'उसे न छेड़ो नानी-माँ । वह ठीक अपनी जगह पर चौकस है । और मुझ से नाराज़ होने का हक़ उसका पूरा है। उससे अधिक शायद किसी का
नहीं ! . .
मेरे माथे को नानी-माँ ने छाती से चाँप-चाँप लिया : और मेरे बालों को एक गहरी उसाँस के साथ वे संघती चली गईं। वहाँ से मुक्ति आसान न थी।.. पर मैं अगले ही क्षण वैशाली की सीमान्तक राहों पर अपना रथ फेंक रहा था।
साँझ बेला में जब देवी रोहिणी के आवास-भवन पहुँचा, तो सारा महालय ऊपर से नीचे तक सहस्रों दीपों से जगमगा रहा था, और पौर के सामने के मार्ग पर वैशालकों का उत्सव-उत्साह बेकाबू था। मैंने चपचाप रथ पीछे उद्यान की राह भीतर ले लिया। शयनागार में रोहिणी मामी मेरी प्रतीक्षा में थीं। ___ 'मान, देवी आम्रपाली का निजी अनुचर मणिभद्र, बाहर तुम्हारी प्रतीक्षा में है।'
'स्वागत है उनका, मामी!'
थोड़ी ही देर में एक विशाल काय वात्सल्य-मूर्ति वृद्ध पुरुष ने आ कर भूमिसात् दण्डवत् किया और कहा : ।
'देवी का एक निजी पत्र ले कर सेवा में प्रस्तुत हूँ, स्वामिन् !' 'देवी आम्रपाली प्रसन्न हों। मैं देवी का क्या प्रिय कर सकता हूँ, भन्ते ।' 'धन्य भाग प्रभु, आपके दर्शन पा सका!'
कह कर एक छोटी-सी रत्न-जटित मंजूषा उसने मेरे हाथ में थमा दी। उसे खोलते ही जाने कैसी पर पार की-सी दिव्य गन्ध कक्ष में व्याप गयी। पट्ट खोल कर पढ़ा :
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