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मणिमाणिक्य और फूलों की हार-मालाएँ निछावर कर रही हैं। रथ के अश्वों, कलशों और खम्बों पर फूलों के ढेर लग गये हैं । अनवरत जयकारों से आलोड़ित इस जन-प्रवाह को मैंने शोभा के एक पारावार की तरह उमड़ते देखा । और सहसा अनुभव किया, कि वह महासमुद्र मेरे भीतर मूर्तिमान हो कर, एकाकी उस विशाल जन-प्रवाह की तरंगों पर चल रहा है। और अगले ही पल, पर्वतों से डग भरते उस विराट् पुरुष को अपने में से निष्क्रान्त हो कर मैंने चलते हुए देखा । वैशाली की इस लक्ष-कोटि प्रजा की बाहुओं को मैंने अपनी भुजाओं में आत्मसात और और उद्दण्डायमान अनुभव किया ।
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'भवनों, द्वारों, शिखरों, गवाक्षों, विपुल वैभवों, सज्जाओं, सहस्रों मानवमुखों को मैंने एक पूंजीभूत प्रभा के रूप में देखा । एकाग्र और समग्र हो गया वह सौन्दर्य-दर्शन | मैंने माँ वैशाली का भव्योज्ज्वल किरीट - मंडित मुख-मण्डल आँखों आगे जाज्वल्यमान देखा । माँ के सीमन्त पर एक अमर सिन्दूरी ज्वाला जल रही है । मेरा माथा बरबस ही झुक गया। एक विशद चतुष्पथ से गुज़रते हुए एकाएक सारथी ने कहा :
'भन्ते कुमार, यह है देवी आम्रपाली का सप्तभूमिक प्रासाद ! '
हाथियों पर खड़े अपने भव्य तोरण पर आरूढ़ सप्तभूमिक प्रासाद की रत्नच्छा को एक झलक देखा । कि हठात् एक बड़ा सारा पद्म - गुच्छ आकर मेरे पैरों पर पड़ा । उसके बीचों-बीच स्तम्भित श्वेत ज्वाला-सा एक हीरा झगर-झगर झलमला रहा था । कमल-गुच्छ को उठा कर सन्मुख किया तो पाया कि उस सूर्याभ हीरे के दर्पण में मेरा समस्त एक बारगी ही प्रतिबिम्बित हो उठा है । और एक पदनख मेरी छाती में गड़ कर गहरा उतरता ही चला गया। एक असह्य ज़ख्म मेरी वज्रवृषभ सन्धियों में कसक उठा। एक वह्निमान तीर-सा प्रश्न सामने खड़ा उत्तर माँग रहा है। 'हाँ, वही उत्तर देने तो आया हूँ, माँ ! '
नगर के केन्द्रीय चौक में हमारे रथ आ लगे । असंख्य लहरों में उमड़ते मानव - महासागर की जय-निनादों पर तैरते अपने रथ को एकाकी समक्ष देखा । · · · लक्ष लक्ष आँखों के प्यार के केन्द्र बने एक सूर्य- पुरुष को रथ में आसीन देखा । स्वयम् डूब गया उन लाखों आंखों में, और उनके लक्ष्य को देख स्तब्ध रह गया। मैं नहीं रहा, वही रह गया ।
' और सामने दिखाई पड़ा वैशाली का विश्व-विख्यात संथागार, जिसकी कीर्तिपताका ससागरा पृथ्वी पर फहरा रही है । मनुष्य और वस्तु मात्र की जन्म
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