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जात स्वतंत्रता का यह मानस्तम्भ है। चिर प्रगतिमान मानव के स्वातंत्र्य-संघर्ष की यह एक मात्र परित्राता आशा है। ___ शत-सहस्र जनगण की भुजाओं के चक्र पर वाहित, त्रिभुवन-तिलक रथ' ठीक संथागार के विस्तीर्ण मर्मर-सोपान के सम्मुख आ खड़ा हुआ। सभागार के अन्तराल और अलिन्दों से अविराम जय-ध्वनियाँ गंजने लगीं। अनेक मुकुटबद्ध कुल-राजन्यों का नेतृत्व करती, सबसे ऊपर के सोपान पर धनुष की प्रत्यंचा-सी दुर्दम्य और उत्तान एक कोमल गौरांगना खड़ी है। वह अपने दोनों हाथों में मंगलाचार का रत्न थाल उठाये है। उसकी आँखों के प्रदीप्त नीलमों में पश्चिमी ममुद्र बन्दी है। उसके सुडोल अंगागों में कापिशेय अंगूरों की लताएँ झूम रही हैं। · · ·निमिष मात्र में ही मैंने गान्धार-बाला रोहिणी को पहचान लिया। स्वागत में फैली उसकी इषत् मुस्कान को शिरोधार्य कर, मैं एक ही छलाँग में रथ से उतर कर संथागार के सोपान चढ़ गया। मेरे संकेत पर मेरे सारथी गारुड़ ने भी मेरा अनुसरण किया। गान्धारी मामी ने अक्षत-फूल बरसा कर मुझे बधाया। उनके मुख से सहज ही फूटा : _ 'इक्ष्वाकुओं के सूर्य-पुत्र को गान्धारी रोहिणी प्रणाम करती है। विशाला धन्य हुई, अपने आँचल की छाँव में अपने भुवन-मोहन पुत्र को पा कर !'
'विशाला का गणपुत्र गान्धार गण-नंदिनी रोहिणी से मिलने आया है। आर्यावर्त के पश्चिमी समुद्र-तोरण की स्वातंत्र्य-लक्ष्मी को प्रणाम करता हूँ।'
कह कर ज्यों ही मैं मामी के चरण-स्पर्श को झुका, कि उनकी, धनुषाकार बाँहों के कण्ठहार तले, मेरा ललाट उनके वक्षदेश पर उत्सगित हो रहा।
'मामी · · · !' 'मेरे महावीर · · · !'
सुवर्ण की एक प्रशस्त चौकी पर सामने ही फूल-पल्लवों से आच्छादित माटी का एक सुचित्रित कुम्भ रक्खा है। उसे दोनों हाथों में उठा कर रोहिणी ने उस पर ढंके श्रीफल को अतिथि के चरणों में अर्पित करते हुए कहा :
'वैशाली की मंगल-पुष्करिणी का राज्याभिषेक स्वीकारो, देवपुत्र वर्द्धमान
'. · क्या मंगल-पुष्करिणी के चिरकाल के बन्दी जल मेरे हाथों मक्ति चाहते हैं, मामी?'
कहते हुए मैंने रोहिणी के हाथों थमा कलश, बरबस ही अपने हाथों में ले लिया। एक हाथ की अंजुलि में उसका जल ले कर मैं मुड़ा, और उसे पीछे उमड़
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