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के चरणों में अर्पित कर दिये। और चहुँ ओर घूम कर जनगण को हाथ जोड़, सर नवाँ कर बारम्बार प्रणाम किया। · ·और तत्काल रोहिणी मामी के कन्धे पर हाथ रख कर, मैं संथागार के अनेक सरणिबद्ध स्तम्भों और द्वारों को पार करता चला गया। . .
· · ·संथागार से बाहर आ कर उसके सर्वोपरि सोपान पर खड़े होकर जो जनगण का प्रेम-पारावार उमड़ता देखा, जो जयकारों का हिल्लोलन सुना, उसमें डूब जाने के सिवाय और कुछ शक्य ही नहीं था। - हमारा रथ कब और कैसे उस महाप्रवाह में तैरता हुआ, महानायक सिंहभद्र के महालय पर पहुँच सका, सो पता ही न चल सका।
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